Book Title: Tattvagyan Vivechika Part 02
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: A B Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 221
________________ सरलार्थ : जैसे अग्नि आदि पदार्थ अनुमान के विषय होने से किसी के द्वारा प्रत्यक्ष भी ज्ञात होते हैं; उसीप्रकार परमाणु आदि सूक्ष्म, राम-रावण आदि अन्तरित और मेरु आदि दूरवर्ती पदार्थ हमारे अनुमान ज्ञान के विषय होने से किसी के प्रत्यक्ष भी हैं; अर्थात् कोई उन्हें प्रत्यक्ष भी जानता है। जो उन्हें प्रत्यक्ष जानता है, वह सर्वज्ञ है - इसप्रकार सर्वज्ञ की सत्ता भलीभाँति सिद्ध हो गई ॥५॥ अब, वीतरागी और सर्वज्ञ एकमात्र जिनेन्द्र भगवान ही हैं; यह हेतु द्वारा सिद्ध करते हैं अर्थात विशेष सर्वज्ञता की सिद्धि करते हैं - स त्वमेवासि निर्दोषो, युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते, प्रसिद्धेन न बाध्यते || ६ || युक्ति शास्त्र अविरोधी वाणी, होने से निर्दोषी आप । प्रत्यक्षादि से न बाधित वस्तु अविरोधीमय आप ।। ६ ।। शब्दश: अर्थ : स= वह, त्वं = तुम / हे भगवन आप !, एव = ही, असि = हो, निर्दोष:-निर्दोष, युक्तिशास्त्राऽविरोधिवाक्=युक्ति और शास्त्र से अविरुद्धवचन होने के कारण, अविरोधः = अविरोध, यद्= जो, इष्टं=इष्ट / मान्य, ते = आपके लिए, प्रसिद्धेन प्रसिद्ध प्रमाण से, न=नहीं, बाध्यते = बाधित होता है। सरलार्थ : हे भगवन ! वे निर्दोष / वीतरागी और सर्वज्ञ आप ही हैं; क्योंकि आपके वचन युक्ति और शास्त्र से अविरुद्ध हैं। आपको जो इष्ट है, आपने वस्तु आदि का जो स्वरूप बताया है; वह प्रत्यक्ष, तर्क, तर्क, अनुमान आदि प्रसिद्ध प्रमाणों से बाधित नहीं होता है ॥६॥ अब, हेतु द्वारा अन्य के गुरुता का निषेध करते हैं - त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम् । आप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ||७|| जिनमत अमृत से बाहर, आप्ताभिमान से ग्रसित सभी । हैं वे सर्वथा एकान्ती, उन इष्ट दृष्ट से बाधित ही ॥ ७॥ शब्दश: अर्थ : त्वत्-तुम्हारे / हे भगवन ! आपके, मत-अमृत=मत रूपी अमृत से, बाह्यानां=बाहर / भिन्न / अन्य, सर्वथा = पूर्णतया, एकान्त- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / २१६

Loading...

Page Navigation
1 ... 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238