Book Title: Tattvagyan Vivechika Part 02
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: A B Jain Yuva Federation

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Page 230
________________ प्रश्न ५ : विशेषरूप में सर्वज्ञ की सिद्धि करना' किसे कहते हैं ? - यह स्पष्ट करते हुए विशेषरूप में सर्वज्ञ की सिद्धि कीजिए । उत्तर : किसी विशिष्ट व्यक्ति को सर्वज्ञ सिद्ध करना - 'विशेषरूप में सर्वज्ञ की सिद्धि करना' कहलाता है। जैसे भगवान महावीर सर्वज्ञ हैं - यह सिद्ध करना 'विशेषरूप में सर्वज्ञ की सिद्धि करना' है। यद्यपि सभी मतवाले अपने-अपने मत प्रवर्तक को सर्वज्ञ कहते हैं: तथापि वे सभी सर्वज्ञ नहीं हैं; क्योंकि उनमें परस्पर विरोध है। उनके वचन आगम-युक्ति संगत नहीं हैं; उनसे इहलोक-परलोक की व्यवस्था भी नहीं बनती है। उनमें सर्वज्ञता क्यों नहीं है ? - इसकी विस्तृत चर्चा दार्शनिक ग्रन्थों में की गई है। उनमें से कोई एक ही सर्वज्ञ हो सकता है । वह सर्वज्ञ कौन होगा ? – इसे स्पष्ट करते हुए आचार्यश्री समन्तभद्र स्वामी अपने आप्तमीमांसा नामक ग्रंथ में लिखते हैं " स त्वमेवासि निर्दोषो, युक्ति-शास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते, प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥ ६ ॥ हे भगवन ! वह निर्दोष / वीतरागी और सर्वज्ञ आप ही हैं; क्योंकि आपके वचन युक्ति और शास्त्र से अविरुद्ध हैं। आपने जो भी बताया है, वह प्रत्यक्ष आदि प्रसिद्ध प्रमाणों से बाधित नहीं है। वस्तु-स्वभाव के विरुद्ध या प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विरुद्ध कथन दो कारणों से ही होता है - १. रागादि दोषों के कारण, २. अज्ञानता के कारण । जिनेन्द्र भगवान निर्दोष / वीतरागी होने से उनमें रागादि दोष नहीं हैं तथा आवरण नष्ट हो जाने के कारण वे पूर्ण ज्ञानी / सर्वज्ञ हो जाने से उनमें अज्ञानता नहीं है; अतः उनका सम्पूर्ण प्रतिपादन वस्तु स्वभाव के अनुसार और प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से अबाधित ही होता है। यही उनके सर्वज्ञ होने का प्रमाण है। अन्य-मतवादी सर्वज्ञ नहीं हैं; - इस तथ्य को वे वहीं इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - " त्वन्मतामृतबाह्यानां, सर्वथैकान्तवादिनाम्। आप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ||७|| - देवागम स्तोत्र (आप्तमीमांसा) / २२५ 9

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