Book Title: Tattvagyan Vivechika Part 02
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: A B Jain Yuva Federation

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Page 227
________________ है और इन दोनों को एक साथ ग्रहण करने पर कहने की क्षमता नहीं होने से वस्तु अवक्तव्य-स्वरूप है। अपनी-अपनी अपेक्षा इस अवक्तव्य के साथ पूर्वोक्त तीन भंगों को मिलाने से, शेष तीन भंग बन जाते हैं; जो इसप्रकार हैं - कथंचित् सत् अवक्तव्य, कथंचित् असत अवक्तव्य और कथंचित् सत्-असत् अवक्तव्य ।।१६।। प्रश्न ४ : सामान्यरूप में सर्वज्ञ की सिद्धि करना' किसे कहते हैं - यह बताते हुए सामान्यरूप में सर्वज्ञ की सिद्धि कीजिए ? उत्तर :सर्वज्ञता, सकलज्ञता, अतीन्द्रिय ज्ञानपना, पूर्ण निरावरण ज्ञानपना, केवलज्ञानपना, सकल प्रत्यक्ष ज्ञानपना सिद्ध करने को ‘सामान्य रूप में सर्वज्ञ की सिद्धि करना' कहते हैं। ___ अनेक मतवादी ऐसा मानते हैं कि तीनकाल-तीनलोकवर्ती समस्त पदार्थ किसी एक ज्ञान द्वारा ज्ञात नहीं हो सकते हैं। यद्यपि वे अपने-अपने मत-प्रवर्तक को सर्वज्ञ मानते हैं; परन्तु सर्वज्ञ का अर्थ सबको जानना नहीं मानते हैं। भूत और वर्तमान को जाननेवाला ज्ञान अथवा स्वयं को छोड़कर अन्य सभी को जाननेवाला ज्ञान सर्वज्ञ कहलाता है - इत्यादि रूप में वे सर्वज्ञ को परिभाषित करते हैं। ___ दार्शनिक ग्रन्थों में इसे लेकर सर्वांगीण ऊहापोह किया गया है। आप्त -मीमांसा भी एक दार्शनिक ग्रन्थ होने से वह भी इस विषय से अछूता नहीं है। इस युग में न्याय के प्रतिष्ठापक आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने अपने अकाट्य तर्कों द्वारा यह सिद्ध किया है कि कोई एक ज्ञान सम्पूर्ण लोकालोक को जान सकता है। तीनकाल-तीनलोकवर्ती स्व-पर – समस्त पदार्थों को जो ज्ञान एक साथ जानता है, उसे सर्वज्ञ कहते हैं। ऐसा ज्ञान नियम से पूर्ण निरावरण, पर-निरपेक्ष, अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष, स्वाधीन, आत्मोत्पन्न ही होता है। इसे ही सामान्यरूप में सर्वज्ञ की सिद्धि करना कहते हैं। इस सामान्य-सर्वज्ञता को हम अनेक तर्कों द्वारा इसप्रकार सिद्ध कर सकते हैं१. यह स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है कि सभी व्यक्तिओं में रागादि और ज्ञानादि समान नहीं हैं। इनमें सतत हीनाधिकता होती रहती है; अत: यह - तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/२२२ -

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