Book Title: Tattvagyan Vivechika Part 02
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: A B Jain Yuva Federation

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Page 219
________________ सात धातु विरहित छाया से रहित आदि तन कीमहिमा। रागादियुत देवों के है, अत: आपकी न गरिमा ॥२॥ शब्दश: अर्थ : अध्यात्म अंतरंग, बहि:=बहिरंग, अपि=भी, एष यह, विग्रह आदि-शरीर आदि में विद्यमान, महोदय=महा उदय/विशिष्ट विशेषताएँ, दिव्य: दिव्य/पवित्र, सत्यः होने पर भी, दिवौकस्सु= देवताओं में, अपि=भी, अस्ति है, रागादिमत्सु=रागादिमान, स:=वह। सरलार्थ : (सात धातुओं से रहितपना आदि) अंतरंग और (छाया नहीं पड़ना आदि) बहिरंग महोदय/विशेषताओं से सम्पन्न शरीर (यद्यपि मायाविओं के तो नहीं देखा जाता है; तथापि) दिव्य होने पर भी रागादिमान (देव गति के) देवताओं में/के पाया जाता है; अत: इस कारण भी आप हमारी दृष्टि में महान नहीं हैं ॥२॥ अब, सभी तीर्थ-प्रवर्तक आदि गुरु क्यों नहीं हैं ? यह बताते हैं - तीर्थकृत्समयानां च परस्परविरोधतः । सर्वेषामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेद्गुरुः॥३॥ तीर्थ चलाने शास्त्र बनाने, वालों में विरोध मिलता। अत: नहीं सब आप्त हो सकें, किसी एक के ही गुरुता ॥३॥ शब्दश: अर्थ :तीर्थकृत-तीर्थकरने/चलानेवालों, च-और, समयानां= शास्त्र बनानेवालों के, परस्पर आपस में, विरोधत: विरोध होने से, सर्वेषां सभी के, आप्तता=आप्तपना, नास्ति नहीं है, कश्चित् कोई एक, एव=ही, भवेद् हो सकता है, गुरु:-गुरु (प्रकारान्तर से इस पंक्ति का प्रश्नोत्तर शैली में भी सन्धि-विच्छेद कर अर्थ किया जा सकता है। वह इसप्रकार है - कोई एक ही गुरु हो सकता है। क: वह कौन हो सकता है? चिद्-एव वह चैतन्यात्मक आत्मा ही गुरु हो सकता है)। सरलार्थ : तीर्थ चलानेवालों और शास्त्र बनानेवालों के परस्पर विरुद्धता होने से सभी के तो आप्तपना सम्भव नहीं है। उनमें से कोई एक ही गुरु हो सकता है। वह कौन हो सकता है ? एक चैतन्यात्मा ही हो सकता है।।३।। ___ अब, कोई वीतराग-सर्वज्ञ हो सकता है यह एक हेतु द्वारा सिद्ध करते हैं अर्थात् सामान्य सर्वज्ञता की सिद्धि करते हैं - - तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/२१४

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