Book Title: Tattvagyan Vivechika Part 02
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: A B Jain Yuva Federation

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Page 216
________________ समीक्षा कर, ८१वीं कारिका द्वारा सर्वथा बाह्य अर्थ एकांत की मीमांसा की गई है। ८२वीं कारिका द्वारा सर्वथा ज्ञान - अर्थरूप उभय और अनुभय एकांत का भी निराकरण कर ८३ से ८७ कारिका पर्यंत विस्तार से कथंचित् ज्ञान, कथंचित् अर्थरूप में ज्ञानात्मक, शब्दात्मक और अर्थात्मक पदार्थ की व्यवस्था को सप्तभंगात्मक स्याद्वाद शैली से स्पष्ट कर वस्तु को अनेकांतात्मक सिद्ध करते हुए प्रकरण पूर्ण किया है। ८. अष्टम परिच्छेद : ८८ से ९१ पर्यंत ४ कारिकाओं वाले इस परिच्छेद में सर्वप्रथम ८८वीं कारिका द्वारा सर्वथा दैव एकांत की समीक्षा कर ८९वीं कारिका द्वारा सर्वथा पौरुष एकांत की मीमांसा की गई है । तदुपरांत ९०वीं कारिका द्वारा सर्वथा दैव- पौरुष उभय और अनुभय एकांत में विरोध दिखाकर ९१वीं कारिका द्वारा कथंचित् दैव, कथंचित् पौरुष धर्मों को सप्तभंगात्मक स्याद्वाद शैली से स्पष्ट कर वस्तु को अनेकान्तात्मक सिद्ध करते हुए परिच्छेद पूर्ण किया है। ९. नवम परिच्छेद : ९२ से ९५ पर्यंत ४ कारिका वाले इस परिच्छेद में ९२-९३ पर्यंत दो कारिकाओं द्वारा पुण्य-पाप की मीमांसा कर, ९४वीं कारिका द्वारा सर्वथा उभय और अनुभय एकांत की समीक्षा कर, ९५वीं कारिका द्वारा स्याद्वाद शैली से पुण्य-पाप का विश्लेषण करते हुए प्रकरण पूर्ण किया है। १०. दशम परिच्छेद : ९६ से ११४ पर्यंत २० कारिकाओं वाले इस परिच्छेद में सर्वप्रथम ९६वीं कारिका द्वारा अज्ञान से बंध और ज्ञान से मोक्ष मानने वाली मान्यता का खंडन कर ९७वीं कारिका द्वारा सर्वथा उभयअनुभय एकान्त की मीमांसा कर ९८वीं कारिका द्वारा स्याद्वाद शैली से बंध-मोक्ष की व्यवस्था को स्पष्ट किया है । तत्पश्चात् ९९, १०० - दो कारिकाओं द्वारा जीव के शुद्ध-अशुद्ध भावों की मीमांसा की गई है। तान्तर १०१ और १०२वीं कारिका द्वारा जैन प्रमाण-स्वरूप-भेद और फल बताकर १०३ से १०५ पर्यंत ३ कारिकाओं द्वारा अनन्त धर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादन करनेवाली जैन / जिन-वाणी में स्यात् पद की अनिवार्यता, स्याद्वाद का स्वरूप और स्याद्वाद - केवलज्ञान में मात्र परोक्षप्रत्यक्षरूप भेद को स्पष्ट किया गया है। - देवागम स्तोत्र (आप्तमीमांसा) / २११

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