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होकर पूर्ण वीतराग-विज्ञानमय भाव प्रगट हो जाता है - इत्यादि रूप में सतत चलनेवाली वैचारिक प्रक्रिया ही तत्त्व-विचार है। प्रश्न ५ : 'आत्मानुभूति और तत्त्व-विचार' इस विषय पर एक निबंध लिखिए। उत्तर : सुख-शान्तिमय/धर्ममय जीवन की आदि-मध्य और परिपूर्णता की एकमात्र आधार आत्मानुभूति-सम्पन्न दशा का वाचक आत्मानुभूति' पद आत्मा, अनु और भूति- इन तीन पदों से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है ‘आत्मा का अनुसरण कर होना, परिणमित होना अर्थात् ज्ञानानन्दस्वभावी, अनन्त गुणों के अखंड पिण्ड, अनादि-अनन्त अपने भगवान आत्मा को अपनत्वरूप से जानकर, पहिचानकर, उसमें ही स्थिरता/ तन्मयता रूप परिणमन आत्मानुभूति है।
इसके आत्मानुभव, स्वसंवेदन, आत्मा का प्रत्यक्षवेदन, शुद्धोपयोग, स्वरूपलीनता, आत्मीयता, आत्म-स्थिरता, निर्विकल्प सम्यक् रत्नत्रय इत्यादि अनेकों पर्यायवाची नाम हैं। __कविवर पण्डित बनारसीदासजी अपनी आध्यात्मिक कृति नाटक समयसार में इस आत्मानुभूति को इसप्रकार परिभाषित करते हैं -
“वस्तु विचारत ध्यावतें, मन पावै विश्राम।
रस स्वादत सुख ऊपजै, अनुभौ याकौ नाम ॥७॥ वस्तु-स्वरूप/आत्मतत्त्व का विचार और ध्यान करने से मन विश्राम पा जाता है/स्थिर हो जाता है तथा आत्मिक रस का आस्वाद लेने से सुख उत्पन्न होता है, इसे अनुभव कहते हैं।"
इस आत्मानुभूतिमय दशा में ज्ञायक, ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञप्ति, कर्ता, कर्म, क्रिया, ध्याता, ध्यान, ध्येय आदि सभी कुछ अभेद, अखंड, एक ही हैं।
अतीन्द्रिय ज्ञानानन्द-स्वभावी अपने ध्रुवतत्त्व पर अपनी सम्पूर्ण व्यक्त ज्ञान-शक्ति का केन्द्रित हो जाना ही आत्मानुभूति-सम्पन्न धर्ममय दशा है।
यह स्वयं अतीन्द्रिय ज्ञानानन्दमय सुख-शान्ति-सम्पन्न, निर्विकल्प, निराकुल दशा है; अत: यही एकमात्र करने-योग्य, इष्ट कार्य है। इसे प्राप्त करना ही साधक का मूल प्रयोजन है। भाव यह है कि उपलक्षणात्मक
- आत्मानुभूति और तत्त्वविचार/७५ -