________________
बंध होता है।
|तिओं का बंध होता है । | नहीं होता है।
९. इसे पाप जीव कहा इसे भी पाप जीव कहा इसे एक देश जिन भी
जाता है।
जाता है
यह भी मुख्यतया मनुष्य गति में होता है।
कहा जाता है। यह चारों गति में हो सकता है।
यह अनादि मिथ्यादृष्टि
१०. यह मुख्यतया मनुष्य गति में होता है । ११. यह अनादि मिथ्या- यह भी अनादि मिथ्या - दृष्टि को भी हो सकता है । दृष्टि को हो सकता है । ११. यह जैनेतर में भी यह जैनेतर में भी होता यह द्रव्य जैन को ही होता होता है।
को नहीं हो सकता है।
है।
इत्यादि प्रकार से इन तीनों में पारस्परिक अंतर है: अत: हमें जिनवाणी के आधार से इस गुणस्थान का यथार्थ निर्णय करना चाहिए। प्रश्न २१ : जबकि यह गुणस्थान सम्यग्मिथ्यात्व नामक सर्वघाति रूप दर्शनमोहनीय कर्म - प्रकृति के उदय की निमित्तता में होता है; तब फिर इसे औदयिक भावरूप क्यों नहीं कहा जाता है ? क्षायोपशमिक भावरूप क्यों कहा गया है ?
उत्तर : यह गुणस्थान किस भावरूप है - इस पर जिनवाणी में आचार्यों ने अनेकानेक तर्क-युक्तिओं से सर्वांगीण विचार किया है। उन्हें देखकर ही हम भी कुछ निर्णय कर सकेंगे। उन सभी का संक्षिप्त-सार इसप्रकार है: (अ) औदयिक भाव नहीं कहने के कारण -
-
१. यद्यपि इस गुणस्थान के होने में सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय निमित्त है और वह सर्वघातिरूप भी है; तथापि वह जात्यंतर सर्वघाति होने के कारण उसके उदय में वैसा मिथ्यात्व/विपरीताभिनिवेश नहीं होता है, जैसा मिथ्यात्व या अनंतानुबंधी कर्म-प्रकृति के उदय में होता है। उन दोनों के उदय में क्रमशः सम्यक्त्व पूर्णतया नष्ट हो जाता है या उसकी विराधना हो जाती है; परन्तु उस सम्यग्मिथ्यात्व के उदय में ये दोनों ही स्थितिआँ नहीं बनती हैं; वरन् दोनों का ही मिश्र भाव रहता है; अत: इसे औदयिक भावरूप नहीं कहा गया है।
२. मुख्यतया मोहनीय कर्म के उदय निमित्तक औदयिक भाव नवीन कर्म चतुर्दश गुणस्थान / ११९