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इसे ही स्पष्ट करते हुए आचार्य वीरसेन स्वामी अपनी धवल टीका में लिखते हैं - ‘अप्रत्याख्यानावरणरूप सर्वघाति स्पर्धकों के उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशम के साथ प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से संयमासंयमरूप अप्रत्याख्यानचारित्र व्यक्त होने के कारण वह क्षायोपशमिक भाव है।' __ इसे ही अन्य प्रकार से भी स्पष्ट करते हुए वे वहीं आगे लिखते हैं - 'चार संज्वलन और नौ नो कषायों के क्षयोपशम संज्ञावाले देशघाति स्पर्धकों के उदय से संयमासंयम की उत्पत्ति होती है; अत: संयमासंयम क्षयोपशम लब्धि से होता है। (इसे ही वे स्वयं प्रश्नोत्तर शैली द्वारा विशेष स्पष्ट कर रहे हैं।) प्रश्न : चार संज्वलन और नौ नो कषाय - इन तेरह प्रकृतिओं के देशघाति स्पर्धकों का उदय तो संयम की प्राप्ति में निमित्त होता है; यहाँ उसे संयमासंयम की प्राप्ति का निमित्त कैसे स्वीकार किया जा रहा है ? उत्तर : ऐसा नहीं है; क्योंकि प्रत्याख्यानावरण सर्वघाति स्पर्धकों के उदय से जिन संज्वलन आदि कषाय-नो कषायों के देशघाति स्पर्धकों का उदय प्रतिहत/बाधित हो गया है, उस उदय में संयमासंयम को छोड़कर संयम को उत्पन्न करने की सामर्थ्य नहीं होती है तथा इससे प्रत्याख्यानावरण का सर्वघातित्व भी नष्ट नहीं होता है।'
इसप्रकार संयमासंयम नामक इस पंचम गुणस्थान में चारित्र की अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव ही स्वीकार किया गया है। क्षायोपशमिक भाव के १८ भेदों में भी इसे गिना गया है। प्रश्न ३४: चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम से होने के कारण जब संयमासंयम क्षायोपशमिक भावरूप ही है; तब फिर क्षायोपशमिक भाव के अठारह भेदों में क्षायोपशमिक चारित्र और संयमासंयम - ये दो भाव . पृथक्-पृथक् क्यों गिने गए हैं ? उत्तर : ये दोनों क्षायोपशमिक भावरूप होने पर भी इन दोनों में स्वरूपगत अंतर होने से इन्हें पृथक्-पृथक् गिना गया है। वह अंतर इसप्रकार है - घाति कर्म प्रकृतिओं के देशघाति और सर्वघाति – ये दो भेद हैं। देशघाति
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१४० -