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तो गुणों का स्वरूप ही नहीं बन सकेगा ? परन्तु इतने मात्र से सहानवस्था लक्षण विरोध उनमें नहीं माना जा सकता है; क्योंकि अनंत गुणों का एक साथ एक द्रव्य में रहना ही विरोध स्वरूप मान लेने पर वस्तु का अस्तित्व ही नहीं सकेगा। अनंत-धर्मात्मक वस्तु ही अर्थ-क्रियाकारी होती है; सहानवस्था लक्षण विरोध में वह सम्भव ही नहीं हो सकेगी।
परस्पर परिहार लक्षण विरोध मान लेने पर भी चैतन्य और अचैतन्य के साथ बाधा नहीं आती है; क्योंकि वे सहभावी गुण नहीं है। संयम और असंयम सहभावी गुण/पर्यायें हैं; अतः वे दोनों एकसाथ रह सकती हैं।
इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि परस्पर विरुद्ध दो योग्य -ताओं की उत्पत्ति का कारण यदि एक ही माना जाता है तो विरोध होता है; परन्तु यहाँ ऐसा नहीं है। दोनों की उत्पत्ति के कारण पृथक्-पृथक् हैं । संयम भाव की उत्पत्ति का कारण त्रस - हिंसा से विरति भाव है और असंयम भाव की उत्पत्ति का कारण स्थावर - हिंसा से अविरति भाव है । '
इसप्रकार इन दोनों भावों के एकसाथ रहने में विरोध नहीं होने के कारण यह गुणस्थान बन जाता है।
प्रश्न ३३ : गोम्मटसार जीवकांड गाथा ३० के अनुसार 'प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय में संयमासंयम दशा होती है' - इस कथन के अनुसार यहाँ चारित्र की अपेक्षा औदयिक भाव कहा जाना चाहिए था; परन्तु यहाँ उसकी अपेक्षा औदयिक भाव नहीं बताया गया है; क्षायोपशमिक भाव ही बताया गया है - इसका कारण क्या है ?
उत्तर : प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय में हुई संयमासंयम दशा को औदयिक भाव न कहे जाने और क्षायोपशमिक भाव कहे जाने पर पूर्वाचार्यों ने अनेकानेक तर्क -युक्तिओं से मीमांसा की है। उन सभी का संक्षिप्त-सार ही हम यहाँ देखते हैं -
भट्ट अकलंकदेव कृत तत्त्वार्थ राजवार्तिक के अनुसार 'अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि रूप आठ कषायों के उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशम के साथ प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय, संज्वलन कषाय के देशघाति स्पर्धकों और यथासंभव नो कषायों का उदय होने पर विरताविरत परिणामरूप क्षायोपशमिक भाव होता है।' चतुर्दश गुणस्थान / १३९