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- आचार्य वीरसेन स्वामी ने अपनी धवल नामक टीका में प्रमत्तसंयत' शब्द का जो विश्लेषण किया है; उसका हिन्दी सार इसप्रकार है - ‘सम् | सम्यक्स म्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान पूर्वक; यत-बहिरंग-अंतरंग आस्रवों से विरत; प्र=प्रकृष्टरूप से; मत्त-मदयुक्त/असावधान अर्थात् सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञान पूर्वक बहिरंग-अंतरंग आस्रवों से (भूमिकानुसार) विरत होते हुए भी प्रमाद-युक्त प्रवृत्तिवाले मुनिराज प्रमत्तसंयत हैं।'
इनका आचरण चित्रल होता है। गोम्मटसार जीवकांड की जीवप्रबोधिनी टीका में इसका जो विश्लेषण किया गया है; उसका हिन्दी सार इसप्रकार है – 'चित्रं-प्रमाद से मिश्रित, लाति-ग्रहण करता है; अथवा चित्रल-सारंग/चीता; उसके समान चितकबरा/विचित्र प्रकार का आचरणवाला चित्रलाचरण है; अथवा चित्तं मन, लाति-करता है अर्थात् मन को प्रमाद-स्वरूप करनेवाला आचरण चित्रलाचरण है।'
भाव यह है कि मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण संबंधी क्रोधादि चतुष्क के अभाव में व्यक्त हुई वीतरागता/ शुद्ध परिणति के साथ संज्वलन चतुष्क और यथायोग्य नो कषायों के तीव्र उदय की निमित्तता में होने वाली व्यक्त-अव्यक्त प्रमाद-युक्त २८ मूलगुण आदि पालन करनेरूप मुनिराज की परिणति प्रमत्तसंयत दशा है।
अथवा इस वीतरागता/शुद्धपरिणति के साथ विद्यमान शुभोपयोग की भूमिका-युक्त द्रव्यलिंग-भावलिंग-सम्पन्न मुनिराज की जीवन-चर्या प्रमत्तसंयत दशा है।
प्रमाद की परिभाषा देते हुए आचार्यश्री पूज्यपाद स्वामी अपने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में लिखते हैं- “कुशलेष्वनादरः प्रमादः-कुशल कार्यों में| आत्मकल्याणकारी आत्म-स्थिरतारूप कार्यों में अनादर/असावधानी प्रमाद है।"
संक्षेप में प्रमाद के ४ विकथा, ४ कषाय, ५ इन्द्रिय-विषय, निद्रा और प्रणय/स्नेह - ये १५ भेद प्रसिद्ध हैं। इनके ही उत्तर भेद ८० तथा उत्तरोत्तर भेद ३७५०० हो जाते हैं। इस प्रमत्तसंयत दशा में ये व्यक्त और अव्यक्तरूप
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१४४