Book Title: Tattvagyan Smarika
Author(s): Devendramuni
Publisher: Vardhaman Jain Pedhi

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Page 9
________________ तत्त्वज्ञान स्मारिका अर्थात् बिन्दु एवं कला में से उत्पन्न अ से । महाभाष्यकार महर्षि पतञ्जलि ने भी वर्गों ह पर्यन्त के वर्गों में से क से म तक २५ व्य- का, या वर्णमातृका का, बड़ा महत्त्व प्रतिपादित अन, अ से अः तक के १६ स्वर, एवं य से ह किया है। वे ब्रह्मज्ञान के लिए वर्णज्ञान को पर्यन्त के ४ अन्तस्थ, एवं चार ऊष्म आ जाते । परमावश्यक मानते हैं। हैं । भूमिति शास्त्र के सिद्धान्तानुसार बिन्दु में वर्ण-ज्ञानं वाग्विषयो यत्र च ब्रह्म वर्तते । से रेखा बनती है, एवं रेखा में से वृत्त । यह तदर्थमिष्टेबुद्धयर्थे 'लध्वर्थ चोपदिश्यते ॥ रेखा कला की प्रतीक है। ___ महाभाष्य १।१२ संसार की समस्त भाषाओं की चित्रात्म- शैव तंत्र में ६.४ कलाओं का प्रतिपादन पती बिन्दु एवं कला पर ही आधारित है। किया गया है तो पाणिनीय शिक्षा में भी बिन्दु और कला के योग से जो भाव आकार | "त्रिषष्टि चतुःषष्टि; वर्णाः शम्भुमते मताः" ग्रहण करता है, उसकी अनुगुंज नाद है, जो | अर्थात् शैव तंत्र के अनुसार वर्ण ६३ या ६४हैं। अपने ध्वनि-सामर्थ्य से संसार के त्रिगुणात्मक जैनागम का हृदय-बिन्दु सिद्धचक्र भी रूप में संक्षोभ पैदा कर, तदनुसार तरंग चक्र | | वर्णमाला का शाश्वत समुदाय है, एवं ऋषिमण्डल का निर्माण कर, साधक की भावनाओं को मूर्त स्तोत्र में भी इसी सिद्ध वर्ण की उपासना समंरूप प्रदान करता है। कित है। बिन्दु, कला एवं नादमय यह वर्ण ही इन वर्गों का प्रत्येक का अपना एक सिद्ध है और मंत्रों में बीजाक्षर बन महत्त्वपूर्ण आकार एवं अर्थ है जैसेबनता है। अ-नहीं। आ-अच्छी तरह । इ-गति । वों के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए उ–और । ऋ-गति । लु-गति । ऋग्वेद में कहा गया है क-सुख । ख-आकाश । ग-गति । ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन्देवा अधिविश्वे । च-पुनः । ज-उत्पन्न होना । झ-नाश । यस्तन्न वेद किमृचा करिष्याति त-पार । थ-ठहरना । द-देना । य इत्तद्विदुस्त इमे समासते । ध-धारण करना । न-नहीं। प-रक्षा करना। ऋग्वेद ९।९६४।३६ भ-प्रकाश करना । म-नापना। य-जो । अर्थात् ऋचाएं परम अविनाशी शब्दमय र-देना। ल-लेना। व-गति । अक्षर में ठहरी हैं, जिन में देवता अर्थात् । स-साथ । ह-निश्चय अर्थ । शब्द के विषय (अर्थ) ठहरे हैं। जो अक्षरार्थ ___तीर्थंकर २४ हैं, उन्हें हृदय-कमल के २४ को नहीं जानता है, वह ऋचाओं से क्या लाभ दल माना जा सकता है, एवं २५ वा 'म' प्राप्त करेगा। | कर्णिका में हैं । इसे प्रकारान्तर से यों भी कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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