Book Title: Tattvagyan Smarika Author(s): Devendramuni Publisher: Vardhaman Jain Pedhi View full book textPage 8
________________ ॥ श्री वर्धमान स्वामिने नमः ॥ नमः सिद्धं 1PTE (रहस्यात्मक विवेचन) ले. अध्यात्मयोगी पूज्य पंन्यास श्री भद्रंकरविजयजी महाराज संसार के सभी धर्मों में सिद्ध पद का | सिद्ध एवं जगत्प्रसिद्ध वर्गों की मैं श्लोकरूप पुष्पो महत्त्व गाया गया है। से अर्चना करता हूँ। ___ "सिद्धो वर्णः, अर्थात् भाषाओं के आधार यह मातृका अनादि है, अनन्त है। वर्ण स्वयं सिद्ध हैं-कह कर यह उद्घोष किया। कहा गया है “न विद्या मातृका परा" गया है कि (स्वच्छन्द तंत्र) अर्थात् मातृका से पेर कोई विधा ___इहलौकिक एवं पारलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त नहीं है"। करने के लिए वर्णमातृका की सिद्धि परमावश्यक ___इसे मातृका कहने का यह कारण है किहै। वर्णमाला को यौगिक भाषा में मातृका कहते यह बुद्धिमान पुरुषों के ज्ञानमय तेज का जनन, हैं। इन्हें अक्षर भी कहते हैं क्योंकि इनका नाश परिपालन एवं विशोधन करती है अतः इसका कभी भी नहीं होता। माता के समान महत्त्व है। माता नानाविध कष्टों श्री सिद्धसेनसूरि विरचित "सिद्ध मातृका को सहनकर अपनी संतान को स्वहित, परहित, भिध धर्म प्रकरण" के ६२वे श्लोक में कहा इहलोक एवं परलोक के लिए तैयार करती है । गया है मातृका भी ज्ञान-विज्ञान का बीजरूप बन संसार की बद्ध एवं मुमुक्षु आत्माओं को अपनी सिद्धान्त तर्क श्रुत शब्द विद्या अपनी भावनाओं के अनुरूप फलप्रदा होती वंशादि कंद प्रतिम प्रतिष्ठान् । है। श्री सिंह तिलकसूरि विरचित "मंत्र राज रहअनादि-सिद्धान् सुमनः-प्रबन्धैः, स्य" में लिखा हैवर्णान् महिष्यामि जगत्प्रसिद्धान् ॥६२॥ षोडश चतुरधि विंशतिरष्टौ नाभौ दलानि हृदिमूनि। सिद्धान्त, तर्क, श्रुत, शब्द एवं विद्याओं रूपी आद्यं हान्तं वर्णाः शरदिन्द कला नमःप्रभवाः वंशों के आदि कन्द रूप में प्रतिष्ठित अनादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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