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कथा आती है। जो दक्षिणापथ के पुन्नाट-देश के तलाटवी नामक नगर में निवास करता था। शैशव-काल में ही उसने श्रीपंचमी का व्रत ग्रहण किया और दृढ़तापूर्वक उस व्रत का पालन कर उसने सद्गति प्राप्त की। ___उपर्युक्त महापुराण और बृहत्कथाकोष की कथाओं के मिश्रण से एक नवीन कथा परवर्ती जैन मनीषियों द्वारा कल्पित की गई है। इस कथा का यह उपलब्ध रूप 15वीं सदी के पूर्व का देखने में नहीं आया। श्वेताम्बर-परम्परा में अष्टान्हिका-व्रत का महत्त्व अत्यधिक प्रचलित है। पर्युषण-पर्व को भी उसमें अष्टान्हिका ही कहा जाता है। अतः यह कल्पना कोई क्लिष्ट-कल्पना भी नहीं है कि श्वेताम्बर-परम्परा में अष्टान्हिका-व्रत में सम्पन्न होने वाले सिद्धचक्रविधान के महत्त्व को प्रदर्शित करने के लिए सर्वप्रथम इस कथा के उपलब्ध रूप को इस परम्परा के आचार्यों ने भी गठित किया हो? _____15वीं सदी के 'श्रीपाल-कथा' नामक दो ग्रन्थ उपलब्ध होते हैंएक प्राकृत में और दूसरा संस्कृत में। प्राकृत-ग्रन्थ के रचयिता बृहद्गच्छीय बज्रसेन-सूरि के प्रशिष्य और हेमतिलक-सूरि के शिष्य श्री रत्नशेखर-सूरि हैं। इस ग्रन्थ का संकलन वि०सं० 1428 में हुआ है। संकलकों ने स्वयं ही लिखा है
सिरिवज्जसेण गणहर पट्टपहु हेमतिलयसूरीणं। सीसेहिं रयणसेहरसूरिहिं इमाहु संकलिया।।
चउदस अट्ठारवीसे लिहिया। इससे स्पष्ट है कि रत्नशेखर-सूरि ने आगम और लोक में प्रचलित श्रीपाल सम्बन्धी कथाओं के विविध रूपों का अध्ययन कर इस कथा को नवीन रूपाकृति प्रदान की है।
संस्कृत श्रीपाल चरित के रचयिता 15वीं सदी के विद्वान् सकलकीर्ति भट्टारक हैं। इन्होंने संस्कृत-भाषा में श्रीपाल-चरित नामका एक ग्रन्थ लिखा है। इस चरित-ग्रन्थ के अवलोकन से प्रतीत होता है कि श्रीपाल के मूल कथानक के सम्बन्ध में कई मान्यताएँ प्रचलित थीं। ___महाकवि रइधू के पूर्ववर्ती कवि नरसेन ने भी अपभ्रंश-भाषा में दो सन्धि-प्रमाण 'सिरिवालचरिउ' नामक एक काव्य लिखा है। यों तो महाकवि रइधू के समकालीन
1. दे० बृहत्कथाकोष (सिन्धी जैन सीरीज, मुंबई द्वारा प्रकाशित तथा डॉ० ए०एन० उपाध्ये द्वारा सम्पादित),
कथा-संख्या 145 2. Siri-Siri Valkaha, Pt. I Ed. V.J. Chokshi (Ahmedabad, 1932)] Introduction, Page 13.