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(15) सामिउ जि भिच्चु पुणु सो णरेसु । पुणु सो संभवइ जि किमि विसेसु ।। अरि होइ मित्तु-मित्तु जि महारि। तिय मरिवि पुत्ति पुणु सा जि णारि।। मह रूववंतु पुणु रूवहीणु। धण धण पुण दालिद्दरीणु।। कम्मायत्तउ जगु सयलु राउ। परिणवइ एच्छु भवि विविह भाउ।। कम्मेण राउ कम्मेण रंकु। कम्मेण जीउ पयडिय कलंकु।।
2/11/2-6 अर्थात् स्वामी भृत्य बन जाता है और पुनः वही नरेश भी हो जाता है। भवितव्यता से क्या संभव नहीं है? शत्रु मित्र बन जाता है और मित्र महान् शत्रु। पत्नी मरकर पुत्री बन जाती है और पुत्री ही नारी। महान् सौन्दर्यवान् कुरूपता को प्राप्त हो जाता है तथा अत्यन्त धनाढ्य व्यक्ति दरिद्र हो जाता है। हे राजन्, इस संसार में सभी लोग कर्माधीन हैं। वही लोगों को नए-नए नाच नचाता रहता है। कर्म से ही व्यक्ति राजा बनता है और कर्म से ही रंक। कर्म-फल से ही यह जीवन कलंकित अथवा निर्मल बनता है...।
तीसरी सन्धि में कवि ने कई मार्मिक स्थल उपस्थित किए हैं। मैनासुन्दरी का पिता क्रोधावेश में आकर मैनासुन्दरी का विवाह कुष्ठी श्रीपाल से कर देता है। विवाह हो जाने के अनन्तर जब दामाद का विकृत रूप देखता है तो उसका हृदय विदीर्ण होने लगता है। उसका मन उसे धिक्कारता है कि क्रोध के कारण मैंने अपनी रति के समान सुन्दरी पुत्री को इस प्रकार के कुष्ठरोगी के हाथ सौंपकर बहुत ही अनुचित कार्य किया है। उसका मानसिक द्वन्द्व चरम सीमा पर पहुंच जाता है और बरसाती बाँध के समान जब भावावलि उसके हृदय को तोड़कर आगे बढ़ने लगती है तो वह मैनासुन्दरी से क्षमायाचना करता हुआ कहता है
हा-हा हउँ पठ्ठमइ अप्पाणु। एहउ आयरइ ण डोमु पाणु।। हा-हा मइ हा रिउ णिवह मग्गु। णिय मणुवज्जमु सग्गापवग्गु।। हउँ अवजसु भायणु एच्छु लोउ। महु णामें पाव महंतु होउ।। दंसावमि लोयह वयण केमु । सुव अंकि णिहिव्विउ रुव्वइ एम।। । हा-हा पुत्ति जिणामय पवीण। मय पावें पविहिय खणि ण दीण।।
1. सिरिवाल० 3/16-17