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पत्ता । णउ कोइ वि लक्खइ मुइजणपक्खइ हउँ सठु धिछ वि पावमइ।। 3/18/1-5, 10 ___ मैनासुन्दरी की दृढ़ता यहाँ पर भी प्रशंसनीय है। उसे कर्म-सिद्धान्त पर दृढ़ विश्वास है। “लिखितमपि ललाटे प्रोज्झितुं को समर्थः” पर उसकी पूर्ण आस्था है। अतः वह पिता को मधुर-वाणी में उत्तर देती हुई कहती है"पूज्य तात्, आपका कोई भी दोष या अपराध नहीं, आप व्यर्थ ही चिंतित होते हैं। यह सब मेरे किए हुए पूर्वजन्मों के कर्मों का फल है। यह जीव जैसा शुभाशुभ आचरण करता है, उसका फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है। मन, वचन
और काय द्वारा स्पन्दित-क्रिया को योग कहा जाता है और यह योग ही आश्रव है। शुभ-योग पुण्याश्रव का कारण होता है और अशुभ-योग पापाश्रव का। मैंने किसी जन्म-जन्मान्तर में अशुभ कर्म का अर्जन अवश्य किया है और उसी का फल मुझे अब प्राप्त हो रहा है। कवि रइधू ने लिखा है
अवगण्हहु सोउ किं दोसु तुम्हु। मुंजिवउ चिरुकिउ कम्मु अम्हु ।। णउँ तुम्हि करहु महु अहिउ जम्मि। इहु आणि घडायउ दइउ कम्मि।।
___3/18/7-8 मनस्वी श्रीपाल स्वस्थ होकर जब कुछ दिन ससुराल में रह चुका तब एक दिन मध्यरात्रि के समय उसकी नींद टूट गई और वह सोचने लगा कि यहाँ पर राज-जामाता होकर रहना. अपने कुल को अपमानित करना है। यहाँ सभी लोग मुझे राजा-जमाई कहते हैं। मेरे कुल का कोई नाम भी नहीं लेता। यह परिस्थिति मुझे असह्य है। इस प्रकार उसके मन में नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प उत्पन्न होने लगे। ___ पति को जगते हुए देखकर मैनासुन्दरी ने पूछा कि आज आपकी नींद मध्यरात्रि में ही क्यों टूट गई? चिन्ता के कारण आपका मुखपद्म मुरझा गया है, सौन्दर्य की आभा अस्त होती हुई चन्द्रिका के समान मलिन मालूम पड़ रही है। क्या किसी ने आपका अपमान किया है या किसी ने दुर्वचन कहे हैं? आपकी यह व्याकुलतापूर्ण स्थिति मुझे सह्य नहीं है। प्राणनाथ! अपने मन की समस्त वेदना मुझे बता देने की कृपा करें। कवि रइधू ने इस प्रसंग का बहुत ही मार्मिक चित्रण किया है। वह कहता है
.................। किं का वि चिंत णियमणि वहहो।। किं राय किं पि दुब्बोलियाउ। किं णिययदेसु पुणु सल्लियाउ।।