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विश्वासघाती धवल सेठ जब अपने कपट - जाल द्वारा श्रीपाल को समुद्र में गिरा देता है। और रयणमंजूषा के सतीत्व का अपहरण करना चाहता है तब उस समय रयणमंजूषा ने जो विलाप किया है, उसमें हृदय को द्रवित करने की पर्याप्त क्षमता है'।
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इस प्रकार महाकवि रइधू ने इस चरित-काव्य में काव्यत्व का समावेश करने हेतु मर्म-स्थलों की पूर्ण योजना की है। इसमें पौराणिकता तो केवल सृष्टि-निर्माण एवं प्रथम-सन्धि में भगवान महावीर की समोशरण-सभा तक ही सीमित रह जाती है । कवि ने जिस सन्धि से कथा का आरम्भ किया है, उस सन्धि से काव्य - शैली का पूर्ण प्रयोग किया है । वैदर्भी-शैली का स्वच्छ रूप और समासहीन सरल - पदावलि का प्रयोग इस काव्य की अपनी विशेषता है
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शैली की दृष्टि से एक बात और स्मरणीय है कि कवि ने पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग कर अर्थबोध में क्लिष्टता उत्पन्न कर दी है । यथा अमरकोश के स्थान पर सुरकोश', आदि का प्रयोग ।
सूक्तियों, कहावतों एवं विविध सद्गुणों की महिमा तथा दुर्गुणों की निन्दा आदि के वर्णनों की दृष्टि से भी यह रचना उत्कृष्ट है । कवि ने प्रसंग प्राप्त अवसरों पर उनका समुचित प्रयोग किया है। ऐसे वर्णनों में सिद्धचक्रमाहात्म्य, नवकारमाहात्म्य', पुण्य-माहात्म्य, सम्यक्त्वमाहात्म्य', उपकार-महिमा, गन्धोदक-महिमा, व्यापार - निन्दा', लोभ-लालच निन्दा', पर-स्त्री लम्पटी की निन्दा, कामीजनों की निन्दा, आदि दृष्टव्य हैं । 'उपकार' को कवि ने मानव-शरीर' का शृंगार कहा है । यथा
। उवयारें
सोहइ णरसरीरु ।। जिह रयणें सोहइ कणयभव्वु । वेरागें सोहइ जेम भव्वु ।।
1. सिरिवाल 06/21-23
2. सिरिवाल० 1/13/16
3. सिरिवाल 0 6 / 11; 7/1
4. सिरिवाल0 10/1
5. सिरिवाल० 4 / 9
6. सिरिवाल० 5/20
7. सिरिवाल० 5/17
8. सिरिवाल 06/25