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सिरिवालचरिउ : एक दुर्लभ पाण्डुलिपि
उत्तर-मध्यकालीन अपभ्रंश अथवा सन्धिकालीन अपभ्रंश की महाकवि रइधू कृत प्रस्तुत कथात्मक पाण्डुलिपि समकालीन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक, समुद्री-यात्रा तथा वैदेशिक व्यापर (Foriegn Trade) से सम्बन्धित होने के कारण महत्त्वपूर्ण तो है ही, परवर्ती भाषाओं के उद्भव एवं विकास तथा उनके भाषा-वैज्ञानिक विश्लेषण की दृष्टि से भी वह विशिष्ट-कोटि की रचना है।
उक्त दुर्लभ पाण्डुलिपि पेरिस (फ्रांस) के प्राच्य-शास्त्र-भण्डार में सुरक्षित है। वहाँ की प्रो० डॉ० नलिनी बलवीर जी के सौजन्य से उसकी फोटोकापी मुझे उपलब्ध हुई थी, अतः इसके अध्ययन एवं मूल्यांकन का सारा श्रेय उनकी संवेदनशीलता, सदाशयता एवं सौमनस्यता की ओर जाता है। तदर्थ मैं उनका आभारी हूँ।
लेखक
प्रो० डॉ० राजाराम जैन
सिरिवालचरिउ उत्तरमध्यकालीन अपभ्रंश अथवा सन्धियुगीन अपभ्रंश की एक महत्त्वपूर्ण रचना है, जो अद्यावधि अप्रकाशित है। उसका मूल उद्देश्य है सिद्धचक्रव्रत-विधि-विधान तथा उसके मन्त्र-जाप के चमत्कार का प्रदर्शन। इसीलिए इसका अपरनाम है सिद्धचक्कमाहप्प (सिद्धचक्र-माहात्म्य)।
यह रचना इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उसके रोचक कथानक में वैदेशिक व्यापार (Foreign Trade), तथा उसके उपकरण, पथ-पद्धति (Road System) मध्यकालीन महासार्थवाह तथा उनके कार्य, समुद्री पोतों के उपकरण, समुद्री डाकुओं के आतंक, जल तारिणी-विद्या-सिद्धि तथा वैर-निवारिणी-विद्या-सिद्धि के तात्कालिक प्रभाव, क्रय-विक्रय की वस्तुएँ, समुद्र के मध्यवर्ती विभिन्न द्वीप-समूहों की समृद्धि तथा उनके निवासियों का सामाजिक जीवन, समकालीन आर्थिक जीवन, विभिन्न जातियों के नाम, बहुविवाह-प्रथा, समाज में नारियों की स्थिति, नारियों के लिए प्रदान की जाने वाली विभिन्न शिक्षाएँ, समस्या-पूर्ति द्वारा नारी का बौद्धिक परीक्षण आदि के वर्णन-प्रसंगों के माध्यम से मध्यकालीन भारतीय आर्थिक (Economic) सामाजिक (Social), धार्मिक (Religious), राजनीतिक (Political) एवं भौगोलिक (Geographical) इतिहास-लेखन के लिए भी उसमें प्रचुर मात्रा में सन्दर्भ सामग्री उपलब्ध होती है।