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19. दसलक्षण-जयमाला ( प्राकृत ) ( 10 पद्य) प्रकाशित 20. बारह भावना (हिन्दी) ( 14 पद्य )
महाकवि रइधू की अद्यावधि अनुपलब्ध रचनाओं में (1) सुदंसणचरिउ, ( 2 ) पज्जुण्णचरिउ, (3) भविस्सयत्तचरिउ, (4) करकंडचरिउ, (5) रत्नत्रयी एवं ( 6 ) उवएसरयणमाल हैं । सिरिवालचरिउ की पाण्डुलिपि पेरिस (फ्रांस) में सुरक्षित है ।
समुद्री - वायु के प्रकार
सिरिवालचरिउ में समुद्र यात्रा का बड़ा लोमहर्षक वर्णन किया गया है । उसमें एक प्रसंग में बतलाया गया है कि एक बार समुद्र में वायु प्रकुपित हो उठी, भयानक तरंगें उठने लगीं और उसने रौद्ररूप धारण कर लिया । अतः महासार्थवाह के समुद्री - जल-पोतों का आगे बढ़ना कठिन हो गया। वस्तुतः समुद्र -यात्रा की निर्विघ्न - समाप्ति का सारा श्रेय अनुकूल वायु पर ही निर्भर करता है और अनुभवी कुशल निर्यामकों का होना समुद्री - वायु के रुखों का सुज्ञान समुद्री यानों के सुरक्षित संचालन के लिए अत्यावश्यक माना गया है।
सूत्रकृतांग - टीका (1 / 17 ) के अनुसार हवाएँ सोलह प्रकार की होती हैं (1) पूर्वी-वात, (2) उदीचीन-वात (उत्तराहट), (3) दक्षिणात्य - वात ( दखिनाहट), (4) उत्तरपौरस्त्य ( सम्मुख से आती हुई उत्तराहट), (5) सरवासुक, (6) दक्षिण - पूर्व तुंगार (दक्षिण - पूर्व से चलती हुई जोरदार हवा), (7) अपर दक्षिण- वीजाप (दक्षिण-पश्चिम से चलने वाली हवा ), ( 8 ) अपर वीजाप (पछुवा हवा), (9) अपरोत्तर - गर्जम (पश्चिमोत्तरी तूफान ), (10) उत्तर - सत्त्वासुक, ( 11 ) दक्षिण सत्त्वासुक, (12) पूर्व - तुंगार, (13) दक्षिण - वीजाप, ( 14 ) पश्चिम - वीजाप, ( 15 ) पश्चिमी - गर्जम तथा (16) उत्तरी गर्जम । इन हवाओं के रुख को ध्यान में रखते हुए कुशल -निर्यामक ( पोत - संचालक) पोतों (समुद्री यानों) का संचालन किया करते थे ।
विदेशों में क्रय-विक्रय की वस्तुएँ
भारतीय महासार्थवाह विदेशों में विक्रय के लिए गणिम ( गिनने योग्य फलादि), धरिम (तौलकर बेचने योग्य जैसे काली मिर्च, कृष्णकली अथवा लौंग), परिच्छेय ( फाड़कर बेचने योग्य जैसे चंदन की लकड़ी वस्त्रादि) और मेय ( मापकर बेचने योग्य तैलादि) वस्तुएँ ले जाया करते थे और बदले में वहाँ के उत्पादनों यथा हीरा, मोती, माणिक्य स्वर्णादि वस्तुएँ लाया करते थे।