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अपने पिता से क्रुद्ध मैनासुन्दरी की प्रेरणा से उसका पिता राजा पहुपाल कन्धे पर कुल्हाड़ी रखकर कम्बल ओढ़कर तथा लंगोटी बाँधकर एक लकड़हारे के वेश में आकर जब श्रीपाल से क्षमादान करने का सन्देश भेजता है, तो श्रीपाल उसे लकड़हारे के वेश में न आने की सूचना देता है। अतः वह (राजा) प्रसन्न होकर अपने उस जामाता श्रीपाल को सादर अपने घर ले आता है। (आठवीं सन्धि)
श्रीपाल के जीवन का संघर्ष यहीं समाप्त नहीं हुआ। वह अपने खोए हुए साम्राज्य को अपने चाचा वीरदमन से युद्ध कर उसे बुरी तरह पराजित कर अंगदेशस्थ चम्पापुरी का अपना साम्राज्य पुनः प्राप्त कर लेता है। ____साम्राज्य प्राप्ति के बाद वह राजा धरणिपाल के नाम से प्रसिद्ध हुआ और सुचारु रूप से प्रजा-पालन करने लगा। कालान्तर में उसके 12800 पुत्र उत्पन्न हुए।
अन्त में एक मुनिराज से धर्म-श्रवण कर उसने राज्य-पाट त्यागकर दीक्षा ग्रहण कर ली और निर्वाण-पद प्राप्त किया। (नौवीं-दसवीं सन्धि)
श्वेताम्बर-परम्परा में श्रीपाल-चरित का मूल कथानक लगभग उपर्युक्त जैसा ही है। उन दोनों परम्पराओं में जो कुछ अन्तर है, वह निम्न प्रकार है
1. माता-पिता के नामों में अंतर _2. श्रीपाल की राज्यगद्दी एवं रोग सम्बन्धी अन्तर
3. माँ के साथ रहने तथा वैद्य सम्बन्धी घटना में अन्तर 4. मैनासुन्दरी आदि के विवाह सम्बन्धी अन्तर 5. परिणीता राजकुमारियों की माता तथा राजकुमारियों के नामों में अन्तर 6. विवाहोपरान्त श्रीपाल की भ्रमण यात्राओं के वर्णन में अन्तर तथा
7. श्रीपाल की माता एवं पत्नी के मिलन-वर्णन में अन्तर ग्रन्थकार __ प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक माकवि रइधू हैं। विपुल साहित्य रचनाओं की दृष्टि से इस कवि की तुलना में ठहरने वाले अन्य प्रतिस्पर्धी कवि के अस्तित्व की सम्भावना अपभ्रंश-साहित्य में नहीं की जा सकती। मेरी दृष्टि में यह ऐसा प्रथम कवि है, जिसमें एक साथ प्रबन्धकार, दार्शनिक, आचार-शास्त्र-प्रणेता एवं क्रांतिदृष्टा का समन्वय हुआ है। इसके प्रबन्धात्मक आख्यानों में सौन्दर्य को पवित्रता एवं मादकता, प्रेम की निश्छलता, माता-पिता का वात्सल्य, पाप एवं दुराचारों का निर्मम दण्ड, वासना की मांसलता का प्रक्षालन, आत्मा का सुशान्त