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जैन विद्या के विषयगत साहित्यिक वर्गीकरण की दृष्टि से यह उसके प्रथमानुयोग-साहित्य (अर्थात् कथात्मक-साहित्य) का एक रोचक विस्तृत ग्रन्थ है, जिसमें प्राचीन अंगदेश की चम्पापुरी (वर्तमान भागलपुर, बिहार) के राजा श्रीपाल का बहुआयामी संघर्षशील कथानक वर्णित है। इस कथानक को प्रभावक, रोचक एवं सर्वांगीण बनाने की दृष्टि से उसमें कुछ अवांतर-कथाओं का भी संयोजन किया गया है।
राजा श्रीपाल का उक्त कथानक इतना लोकप्रिय था कि इसे लेकर संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, गुजराती एवं हिन्दी में चरित, काव्य, रासाशैली-काव्य एवं नाटक-शैली में दर्जनों ग्रन्थ लिखे गए।
यह कथानक दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही जैन-परंपराओं में लोकप्रिय रहा, यद्यपि कि उनके कथानकों में कुछ अन्तर है। जिसकी चर्चा आगे की जाएगी। कथा-स्रोत
प्रस्तुत पाण्डुलिपि-रचना' के मूल नायक राजा श्रीपाल तथा उसकी पटरानी मैनासुन्दरी का आख्यान एक लोक-प्रचलित आख्यान रहा है। हमारा अनुमान है कि संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश के जैन आचार्य लेखकों ने उनके (श्रीपाल एवं मैनासुन्दरी के) पृथक्पृथक् प्रचलित लोकाख्यानों को मिश्रित कर उन्हें एक नया रूप प्रदान किया होगा। आचार्य जिनसेन (नौवीं सदी) के महापुराण में श्रीपाल नामक एक चक्रवर्ती का आख्यान मिलता है, जिससे निम्न तथ्यों को प्रस्तुत सिरिवालचरिउ के लिए ग्रहण किए गए प्रतीत होते हैं
(1) श्रीपाल चक्रवर्ती का एक विद्याधर द्वारा वृद्ध किया जाना। प्रतीत होता है कि यह वृद्धत्व ही परवर्ती-काल में कुष्ठत्व के रूप में परिवर्तित हो गया।
(2) उक्त श्रीपाल ने अपने साहस और बल-पौरुष के द्वारा अगम्य स्थानों की यात्राएँ कर अनेक कन्याओं का वरण किया और उनमें से सुखदेवी को अपनी पट्टरानी बनाया। यह सुखदेवी ही सम्भवतः श्रीपाल चरितों की परवर्ती मैनासुन्दरी है। क्योंकि दोनों का चरित, साहस, बुद्धि और धैर्य लगभग एक समान है।
आचार्य हरिषेण (दसवीं सदी) के बृहत्कथाकोष में भी एक श्रीपाल नामक पात्र की
1. पेरिस (फ्रांस) प्रति के आधार पर इसका अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है। इसका प्रतिलिपिकाल वि०सं० ___1688 (वर्षे भा०शु० 10) तथा इसकी पृ०सं० 109 X 2 है। 2. जिनसेन कृत महापुराण (बनारस, 1951), भाग 2, 47वाँ पर्व