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सत्यराजगणि ने वि०सं० 1514 में संस्कृत में एक श्रीपाल - चरित तथा सिद्धसूरि ने वि०सं० 1531 में श्रीपाल-नाटक एवं वि०सं० 1557 में लब्धिसागर - सूरि ने श्रीपाल - कथा की रचना की है। महाकवि रइधू के परिवर्तीकाल में भी श्रीपाल चरितों की रचनाएँ हुई हैं। ब्रह्मनेमिदत्त ने 16वीं सदी में संस्कृत में श्रीपाल - चरित और ज्ञानविमलसूरि ने वि०सं० 1638 में श्रीपाल - चरित की रचना की है ।
इस समस्त श्रीपाल-चरितों के आलोडन से अवगत होता है कि श्रीपाल की कथा के दो रूप प्रचलित रहे हैं। प्रथम रूप की मान्यता श्वेताम्बर - परम्परा में पाई जाती है और द्वितीय रूप की मान्यता दिगम्बर- परम्परा में | महाकवि रइधू ने अपनी प्रस्तुत रचनासिरिवालचरिउ में दिगम्बर-मान्यता का अनुसरण किया है' । प्रस्तुत सन्दर्भ में हम यहाँ दोनों मान्यताओं का संक्षेप में उल्लेख करने के पूर्व रइधू कृत रचना की कथा संक्षेप में देना आवश्यक समझते हैं, जो सन्धि-क्रमानुसार निम्न प्रकार है
कथावस्तु
मगध- देश की राजगृही नगरी में राजा श्रेणिक राज्य करते थे । उनकी दो रानियाँ थीं। जयामती एवं चेलना। जयामती से अभयकुमार नामक पुत्र उत्पन्न हुआ तथा चेलना से वारिषेण । किसी एक समय राजा श्रेणिक अपने राजदरबार में बैठे थे कि उसी समय वनपाल ने आकर छहों ऋतुओं के फल-फूल लाकर राजा को भेंट किए तथा विपुलाचल पर भगवान्
1. दिगंबर परम्परानुमोदित 'श्रीपाल चरित' सम्बन्धी निम्न सामग्री ज्ञात हो सकी है
संस्कृत
(1) भट्टारक सकलकीर्ति ( 15वीं सदी) श्रीपालचरित्र
(2) ब्रह्मनेमिदत्त (वि०सं० 1528 ) श्रीपालचरित
अपभ्रंश
हिंदी
गुजराती
(3) रइधू 15 - 16वीं सदी सिरिवालचरिउ ( अपरनाम सिद्धचक्कमाहप्प )
(4) पं० नरसेन ( 14वीं सदी) सिद्धचक्ककहा
(5) दामोदर ( 16वीं सदी) श्रीपालचरित
( 6 ) ब्रह्मरायमल्ल (वि०सं० 1630) श्रीपाल स (7) परिमल्ल (वि०सं० 1651 ) श्रीपाल चरित्र
(यह ग्रन्थ रइधूकृत सिरिवालकहा का प्रायः हिन्दी अनुवाद है)
(8) न्यामतसिंह(20वीं सदी)मैनासुन्दरी नाटक (9) भगवत (20वीं सदी) भाग्य
(10) वादिचन्द्र (वि०सं० 1661 ) श्रीपालाख्यान - कथा (11) अज्ञात - श्रीपालरास