Book Title: Sudharma Dhyana Pradip
Author(s): Sudharmsagar, Lalaram Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 19
________________ म०प्र० ॥४|| RIERRIERRORASIYA यातीतं निरावा निराकुलम् । कमझयेण संभूतं सुखं जीवस्य लक्षणम् ॥१६i निष्प्रकम्पं निरामा निर्विकारं च शाश्व. तम् । चिज्योतिश्चास्ति जीवस्य लक्षणं सहजं शुभम् ॥२०॥ द्रव्यप्राणमयों हि भावप्राश्च जीवितः । जीविष्यति स जीयोस्ति त्रिकालेऽसौ स जीवति ॥२॥ मनोषाकाययोगैश्च आयुः पंचेन्द्रियाणि च । उच्छासाश्च यश प्राधा जीवस्य कथिता जिनैः ॥२॥ ज्ञायोपशमिका भावा भावप्राणा मता जिनैः। सन्त्यसाधारणा भावा जीवस्यैवान पर चार शुद्धशायिकमावास्ते सन्ति शुद्धनयेन वा । शुद्धधैरन्यरूपः स शुद्धजीवस्य लक्षणम् ॥२४॥ शुद्धोपयोगतोऽमिनो नास्ति भिन्नः स्वध्यतः । परमार्थेन जीवस्य लक्षण नास्त्यवाच्यतः ॥२५।। मतिश्रुतावधिज्ञानं मनःपर्ययमेव च । केवलमपर शानं शानं पञ्चविध स्मृतम् ॥२६॥ मिथ्यादर्शनपूर्वस्वान्मतिश्रुतावधि त्रयम् । मिध्यावानं जिनैः प्रोकै कानमस्तीह || आस्माके शुद्ध भाव शुद्ध जीवका लक्षण समझना चाहिये ॥१८॥ जो सुख केवल आत्मासे प्रगट होता है, जो इन्द्रियोंसे रहित है बाधारहित है आकुलतारहित है और कर्मोंके क्षय होनेपर प्रकट होता है ऐसा | र अनन्त सुख भी शुद्ध जीवका लक्षण है ॥१९y जो शुद्ध चैतन्यमय ज्योति निष्प्रकम्प है, निरावाध है, निर्विकार है और सदा रहनेवाली है ऐसी शुद्ध चैतन्यमय ज्योति भी जीवका स्वाभाविक शुद्ध लक्षण है | ॥२०॥ जो द्रव्यप्राणोंसे तथा भावप्राणोंसे अब तक जीवित रहा है आगे जीवित रहेगा और अब जीवित रहता है, इस प्रकार तीनो कालोंमें जो जीवित रहता है उसको जीव कहते हैं ॥२१॥ भगवान जिनेन्द्रदेवने मन वचन काय आधु पांचौ इन्द्रियों और वासोच्छ्वास ये दश प्राण बतलाये है ॥२२॥ भगवान जिनेन्द्र | देवने क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाले भाव मावाण बतलाये हैं तथा जीवके असाधारण माव पांच प्रकार | के बतलाये हैं ॥२३॥ शुद्ध नयसे क्षायिक शुद्ध भात्र शुद्ध जीवका लक्षण है अथवा शुद्ध चेतना शुद्धजीवका लक्षण है ॥२४॥ यह जीव शुद्धोपयोगसे अभिन्न है और न आत्म द्रव्यसे भिन्न है । परमार्थसे देखा जाय तो जीव| का स्वरूप अवाच्य है इसलिए उसका कुछ लक्षण हो ही नहीं सकता है ॥२५॥ मतिज्ञान ध्रुतज्ञान अवधिज्ञान | मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पांच प्रकारके ज्ञान कहे जाते हैं ॥२६॥ मतिज्ञान श्रुतज्ञान और अवधिझान यदि ये तीनों ही ज्ञान मिथ्यानपूर्वक हों तो भगवान जिनेन्द्रदेव उन ज्ञानोंको मिध्यावान कहते हैं। इस प्रकार पांच ज्ञान और तीन मिथ्याज्ञान ये आठ ज्ञान कहलाते हैं ॥२७॥ जो शान सम्यग्दर्शन R

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