Book Title: Sudharma Dhyana Pradip
Author(s): Sudharmsagar, Lalaram Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 18
________________ स०प्र० KISSUKRISA H ASYAKASHARMATHA |१०|| अस्तीह चात्मा घुपयोगरूपणे माता सुद्रष्टा स्वशरीरकल्प: । कर्ताच भोकास्वयमेव शुद्धो मूतोऽयमूर्तः प्रकृतिस्वरूपः | ॥१शा अनादिवः कर्मगणैः प्रबद्धो मिध्यात्वयोगैश्च करोति बन्धम् । बन्धस्य पाकेन नवीन जन्म गृहाति संसारवने शरीरी ॥१२|स बीजवृक्षवत्तत्राप्यशुद्धः कर्मयोगतः । अनादिकालतो भ्राम्यन देहे देहे नवे नवे ॥१३॥ जन्ममृत्युजराकीर्णे तुधातृष्णाकर्थिते । प्राधिव्याधिस्वरूपे हि देहे देहे वसत्ययम् ॥१४|| उपयोगी हि जीवस्प लक्षणं कथित जिनैः । द्विधा द्वादशधा प्रोक्तो शानदर्शनभेदतः ॥१शा मतिज्ञानादिकं यात्राशुद्धजीवस्य लक्षण । कुमतिकुश्रुतानं मिथ्याज्ञानं भ्रमात्मकम् ॥१६॥ शुद्धचैतन्यभावाः स्युः शुद्धरज्ञानलक्षणाः । शुद्धनिश्चयतो मेयं शुद्धजीवस्य लक्ष गम् ॥१७|सर्वकर्ममलातीतं विशुद्धज्ञानदर्शनम् । पात्मभावमयं वात्र विशुद्धजीवलक्षणम् ॥१८॥ प्रात्मोत्यमिन्द्रि | यही आत्मा कमौके समूहके नाश होजानेपर शुद्ध होजाता है, केवल ज्ञानी होजाता है, निर्मल, विमल,विशुद्ध और निरंजन होजाता है तथा स्वात्ममय और परम उदासीनरूप होजाता है ॥१०॥ यही आत्मा उपयोग रूप है, ज्ञाता है. द्रष्टा है, संसार अवस्थामें अपने शरीरके प्रमाणके समान है, कती है, भोक्ता है, अमृत होने का पर भी शरीर धारण करनेके कारण मूर्त होजाता है तथापि स्वाभावसे खयमेव शुद्ध बना रहता है ॥११॥ यह शरीरको धारण करनेवाला संसारी आत्मा अनादि कालसे कोसे बंध रहा है और मिथ्यात्वके निमित्तसे नवीन नवीन कर्मों का बंध करता है तथा उन का उदय होनपर यह संसारी आत्मा संसाररूपी वनमें जन्म-मरण करता रहता है ॥१२॥ अनादि कालसे नवीन नवीन शरीरोंको धारण कर परिभ्रमण करता हुआ यह जीव कर्मके ही निमित्तसे बीज-वृक्षके समान अशुद्ध होरहा है, तथा जन्म-मरण बुढ़ापा आदिसे मरे हुए भूख प्यास आदि दोषोंसे कदर्थित और अनेक रोगोंसे परिपूर्ण ऐसे शरीरोंमें निवास करता चला आरहा है ॥१३-१४! शगवान जिनेन्द्रदेवने इस जीवका लक्षण उपयोगरूप बतलाया है वह उपयोग ज्ञान मेदसे दो प्रकारका है तथा आठ प्रकारका ज्ञान और चार प्रकारके दर्शनके मेदसे बारह प्रकारका भी है ॥१५॥ उनमें से पतिज्ञानादिक अशुद्ध जीवका लक्षण है तथा कुमतिज्ञान कुश्रुतज्ञान भ्रम उत्पन्न करनेवाले मिथ्याशान हैं और व्यवहारसे ये मी अशुद्ध जीवके लक्षण हैं ॥१६॥ शुद्ध दर्शन और शुद्ध शानरूप शुद्ध चैतन्य परिणाम शुद्ध निश्चय नयसे शुद्ध जीवके लक्षण हैं ॥१च्या समस्त कर्मोंसे रहित युद्ध दर्शन और शुद्ध ज्ञानमय

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