Book Title: Stotratrayi Saklarhat Stotra Virjin Stotra Mahadeo Stotra
Author(s): Hemchandracharya, Kirtichandravijay, Prabodhchandravijay
Publisher: Bhailalbhai Ambalal Petladwala
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कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम्
उल्लसितकरना - वढ़ाना - विकसितकरना, चन्द्रमा चन्द्र। अनेकान्तमतरूपी समुद्रके वढ़ानेमें चन्द्रसमान, भगवान्-भग - ऐश्वर्य, धर्म, तप, ज्ञान, वैराग्य, अतिशय । सभी प्रकारके सहज आदि अतिशयसे युक्त, अभिनन्दनः = तीर्थंकर श्रीअभिनन्दनस्वामी, अमन्दम् = अत्यधिक, अनन्त - शाश्वत एवं अखण्ड, आनन्दम् = आनन्द, दद्यात्-देवें ॥६॥ ____ भावार्थ--(जैसे चन्द्र समुद्रके समुल्लास - वृद्धि - भरतीका कारण है, वैसे तीर्थकर स्याद्वादसिद्धान्तके समुल्लास - वृद्धि-प्रचारके कारण हैं, क्योंकि वे ही स्याद्वादसिद्धान्तके उपदेशक हैं । इसलिये) स्याद्वादरूपी समुद्रके समुल्लास केलिये चन्द्र समान जिनेश्वर श्रीअभिनन्दन स्वामी अनन्त, अखंड एवं शाश्वत आनन्द देवें । (यहां - स्याद्वादके अनुसारी ज्ञानसे ही, शाश्वत आनन्दमय मुक्तिका लाभ हो सकता है, अन्यथा नहीं। क्योंकि स्याद्वाद ही वस्तुके यथार्थ स्वरूपका प्रतिपादन करता है-ऐसा अभिप्राय है) ॥ ६ ॥
धुसकिरीटशाणाऽयोत्तेजिताधिनखावलिः। भगवान् सुमतिस्वामी तनोत्वभिमतानि वः ॥७॥
पदार्थ-धुसकिरीटशाणाज्योत्तेजिताघिनखावलिः = धुसत् - देव, किरीट - मुकुट, शाण - सान, कसौटी, अग्र - मुख, सानके ऊपर, उत्तेजित - तेजकिया गया - घसा हुआ, सान चढाया हुआ, नखावलि - नखके समूह, देवोंके मुकुट रूपी सानपर घसाकर तीक्ष्ण तथा चमकते हुए नखोंसे विराजित, भगवान् =सर्व
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