Book Title: Stotratrayi Saklarhat Stotra Virjin Stotra Mahadeo Stotra
Author(s): Hemchandracharya, Kirtichandravijay, Prabodhchandravijay
Publisher: Bhailalbhai Ambalal Petladwala

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Page 48
________________ कीर्तिकला हिन्दी भाषाऽनुवादसहितम् सरोवर के राजहंसस्वरूप चरम तीर्थकर श्रीमान् महावीरस्वामीको मेरा प्रणाम हो- मैं प्रणाम करता हूं । (यहां जो अद्भुत अतिशयों से विराजित तथा मुक्त हैं, वही नमस्कारयोग्य तथा मंगलकारक हैंयह भाव है ) ॥ १ ॥ सर्वेषां वेधसामाद्यमादिमं परमेष्ठिनाम् । देवाधिदेवं सर्वज्ञ श्रीवीरं प्रणिदध्महे ॥ २ ॥ , पदार्थ - सर्वेषाम् = सभी, वेधसाम् = ज्ञानियों के अथवा वासुदेवअर्धचक्रियों के, आद्यम् = मुख्य अथवा प्रथम, तथा, परमेष्ठिनाम् = प्रसिद्ध पंच परमेष्ठियों के आदिमम् = सर्वप्रथम गणनीय अग्रगण्य, देवाधिदेवम् = देवाधिदेव देवों के भी सेव्य, सर्वज्ञम् = सर्वज्ञ - केवल - ज्ञानी, श्रीवीरम् = चरम तीर्थकर श्रीमहावीरस्वामीका, प्रणिदध्महे= `ध्यान करता हूँ ॥ १ ॥ - - २७. - भावार्थ —जो सर्वज्ञ होने के कारण सभी ज्ञानियों के मुख्य हैं, अथवा सभी अर्धची वासुदेवों के प्रथम हैं, (यहाँ - प्रथम चक्रवर्ती भरत के पुत्र मरीचिका जीव त्रिपृष्ठनामके प्रथम वासुदेव हुए थे, तथा वह त्रिपृष्ठवासुदेवका जीवहीं चरमतीर्थकर श्रीमहावीरस्वामी हुए- ऐसा आगममें वर्णित है, यह ध्यान देने योग्य है ।) तथा जो अतिशयों, निर्हेतुककृपा एवं सभी प्राणियोंका उपकार आदिगुणों के कारण, अर्हत् सिद्ध आचार्य उपाध्याय साधु इन पंच परमेष्ठियों में अर्हत् - शब्द सर्वप्रथम कहे जाते हैं तथा अग्रगण्य हैं, ऐसे देवाधिदेवदेवों केभी पूज्य सर्वज्ञ चरमतीर्थकर श्रीमहावीरस्वामीका मैं ध्यान

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