Book Title: Stotratrayi Saklarhat Stotra Virjin Stotra Mahadeo Stotra
Author(s): Hemchandracharya, Kirtichandravijay, Prabodhchandravijay
Publisher: Bhailalbhai Ambalal Petladwala

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Page 71
________________ महादेवस्तोत्रम् च = तथा, अहिंसा, परा कभी भङ्ग नहीं होनेवाली, अलौकिक, असाधारण, सर्वाधिक, सर्वोत्कृष्ट है, इसलिये, सः = वह आत्मा हीं, परमात्मा = परम - प्रकृष्ट गुणवान् आत्मा परमात्मा, उच्यते = कही जाती है ॥ १७ ॥ १८ . भावार्थ वह जिनेश्वरदेव तीर्थङ्कर अवस्था में सकल कर्मक्षय हो जाने से नित्य, अनन्त दर्शन - ज्ञान होनेके कारण अव्यय - मुक्त, जन्म - जरा - मरण आदि अपायों से रहित - अविनाशी - निर्गुण परमात्मा हैं । तथा सांसारिक अवस्था में क्षमा तथा अहिंसा आदि गुणों के सर्वोत्कृष्ट, सर्वाधिक तथा सर्वजीवविषयक होनेके कारण वह सगुण परमात्मा हैं । ( क्योंकि परमगुणों के होने से हीं आत्माको परमात्मा कहा जाता है । अन्य देव 'ज्ञान, दर्शन एवं क्षमा अहिंसा आदि गुणोंसे रहित होनेके कारण नाम मात्र से हीं सगुण निर्गुण 'परमात्मा हैं—ऐसा तात्पर्य है ) ॥ १७ ॥ परमात्मा सिद्धिप्राप्तौ बाह्यात्मा तु भवान्तरे । अन्तरात्मा भवेद्देहे इत्येष त्रिविधः शिवः ।। १८ ॥ ¡ पदार्थ - सिद्धिप्राप्तौ = सिद्धि मिल जाने पर, अर्थात् मुक्त अवस्थामें, परमात्मा=परम- सर्वोत्कृष्ट आत्मा परमात्मा, तु=तथा, भवान्तरे = दो भवों के मध्यकी अवस्था में, अर्थात् विग्रहगतिकाल में, बाह्यात्मा=बाह्य - औदारिक आदि 'चार शरीरसे बहिर्भूत आत्मा, 'तथा, देहे देहस्थ होने पर, अर्थात देही अवस्थामें, अन्तरात्मा ‘अन्तर - देहके मध्यवर्त्ती आत्मा, भवेत् हैं, इति- इस प्रकार, 'ऐषः = ?

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