Book Title: Stotratrayi Saklarhat Stotra Virjin Stotra Mahadeo Stotra
Author(s): Hemchandracharya, Kirtichandravijay, Prabodhchandravijay
Publisher: Bhailalbhai Ambalal Petladwala

View full book text
Previous | Next

Page 45
________________ सकलाई स्तोत्रम् भावार्थ - ( जब श्रीपार्श्वनाथ प्रतिमास्थित थे, तो उनके ध्यान भंग के लिये पूर्वजन्म के वैरके कारण कमठनामके असुरने अनेक उपसर्ग कियेथे, तथा जिनेश्वरभक्त होनेके कारण नागराज धरणेन्द्र ने अपनी शक्तिसे उन उपसर्गोंका निवारण कियाथा । फिरभी भगवान् दोनों के विषय में समदर्शी थे, किसीके ऊपर उनको राग तथा द्वेष नहीं था । इस कथा के अनुसन्धान से स्तुतिकरते हैं - कि) अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार उपद्रव तथा उसका निवारण करनेवाले कमठ नामके असुर तथा धरणेन्द्रनामके नागराजके विषय में समदर्शी वीतराग जिनेश्वर श्रीपार्श्वनाथस्वामी आप भव्योंकी सुखसम्पदा बढ़ा यें। (यहां प्रभु वीतराग हैं, तथा वीतराग ह्रीं सुखके मूल हैं - यह भाव है ) || २५ ॥ २४ - - कृतापराधेऽपि जने कृपामन्थरतारयोः । पापादयोर्भद्रं श्रीवीर जिननेत्रयोः ॥ २६ ॥ इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितं सकलाई स्तोत्रं समाप्तम् ॥ पदार्थ -- कृताऽपराधे = कृत किया है अपराध जिसने ऐसे अपराध करनेवाले के ऊपर, अपि = भी, कृपामन्थरतारयोः - कृपा - दया, मन्थर - स्थिर, तारा - आंखके काले भाग- आंखके तारे, दयासे स्थिर हैं आंखों के तारे जिनके - दयापूर्णदृष्टिवाले, अतएव, ईषद्भाषाईयो:- इषद् -कुछ, बाष्प - आंसू, आर्द्र भींगे, दयासे उमड़ आये आंसुओं से कुछभींगे, श्रीवीरजिननेत्रयो : = जिनेश्वर चरम

Loading...

Page Navigation
1 ... 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98