Book Title: Stotratrayi Saklarhat Stotra Virjin Stotra Mahadeo Stotra
Author(s): Hemchandracharya, Kirtichandravijay, Prabodhchandravijay
Publisher: Bhailalbhai Ambalal Petladwala

View full book text
Previous | Next

Page 44
________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् उपद्रवोंके नाशकरनेवाले, भूयात् होवें ऐसी मेरी प्रार्थना है ॥ २४ ॥ भावार्थ--(चन्द्र समुद्रको बढ़ाता है तथा अमि वनको जला देता है यह प्रसिद्ध है। जिनेश्वरने भी यदुकुलमें जन्म लेकर उसको वढ़ाया - प्रख्यात किया है, तथा ज्ञान एव चारित्रके बलसे सभी कर्मोंको जला दिया है - नाशकर दिया है। इसलिये) यदुकुल रूपी समुद्रके लिये चन्द्ररूपी तथा कर्मवनके लिये अनिरूपी जिनेश्वर श्री अरिष्टनेमिनाथ भगवान् आप भव्यों के उपद्रवोंका नाशकरें। (यहां-जो अरिष्टों-उपद्रवोंके लिये नेमि - चक्रधारारूपी हैं, तथा कर्म - सांसारिक उपाधियोंसे रहित हैं, वे ही उपद्रवोंका नाशकर सकते हैं - यह अभिप्राय है) ॥ २४ ॥ कमठे धरणेन्द्रे च स्वोचितं कर्म कुर्वति । प्रभुस्तुल्यमनोवृत्तिः पार्श्वनाथः श्रियेऽस्तु वः ॥२५॥ पदार्थ-स्वोचितम् अपने अपने स्वभावके अनुरूप, कर्मक्रिया, क्रमशः उपसर्ग तथा उसका निवारणरूप क्रिया, कुर्वति करनेवाले - करतेहुए, कमठे=कमठनामके असुरके विषयमें, च= और, धरणेन्द्रे धरणेन्द्रनामके नागराजके विषयमें, तुल्यमनोवृत्तिः =तुल्य - समान, मनोवृत्ति - भावना. समानभावनावाले - पक्षपातरहितसमदर्शी - उदासीन - मध्यस्थ, पार्श्वनाथ: जिनेश्वर श्रीपार्श्वनाथ, प्रभुः स्वामी, व: आप भव्योंकी, श्रिये -सुखसम्पदा केलिये, अस्तु =हों, सुखसम्पदा वढ़ायें ॥ २५॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98