Book Title: Stotratrayi Saklarhat Stotra Virjin Stotra Mahadeo Stotra
Author(s): Hemchandracharya, Kirtichandravijay, Prabodhchandravijay
Publisher: Bhailalbhai Ambalal Petladwala

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Page 30
________________ । यहााकी काक श्री कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् भावार्थ-जैसे युद्ध आदिमें अपने शत्रुओं के नाशकरनेके समय लोगोंके मुख, आँख आदि अंग क्रोधसे लाल होजाते हैं, वैसे ही कर्म, कषाय आदि अन्तरंग शत्रुओंके नाशकरनेमें जैसे क्रोधसेलाल हो गयीहो, इस प्रकारकी श्रीपद्मप्रभस्वामीके देहकी लाल कान्ति आप भव्योंकी सुखसमृद्धि बढ़ाये। यहां - श्रीपद्मप्रभुस्वामी अन्तरंग शत्रुओंके नाशकरनेवाले हैं, तथा उनके शरीरकी कान्ति लाल है। इसलिये स्वयं श्रीसम्पन्न तथा निर्दोष होनेके कारण लोगोंके श्रीके पोषक हैं - यह स्पष्टार्थ है ॥ ८ ॥ श्रीसुपार्श्वजिनेन्द्राय महेन्द्रमहिता ये। नमश्चतुर्वर्णसङ्घगगनाऽऽभोगभास्वते ॥ ९॥ पदार्थ-चतुर्वर्णसङ्घगगनाऽऽभोगभास्त्रते-चतुर्वर्ण - चतुविध (साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका - इन चारोंका) सङ्घ - सङ्घरूपीगगन - आकाश, आभोग · विस्तार - विस्तृतगगनमंडल, भास्वत् - सूर्य , चतुर्विध संघरूपी विस्तृतगगनके सूर्यसमान, तथा, महेन्द्रमहिताऽज्रये=महेन्द्र - देव, असुर तथा नरोंके इन्द्र, महित - पूजित, अति - पाँव, सुरेन्द्र आदिसे पूजित चरणवाले, श्रीसुपार्श्वजिनेन्द्रायजिनेश्वरश्रीसुपार्श्वनाथको, नमः मेरा नमस्कार हो ॥ ९॥ • भावार्थ—(जैसे विशाल गगन मंडलमें सूर्य-अप्रतिम तेजस्वी, विश्वप्रकाशक तथा लोकहितकारक हैं। उस प्रकार ही विशालचतुर्विधसंघमें जिनेश्वर अप्रतिमतेजस्वी, सदुपदेशके द्वारा विश्वके प्रकाशक तथा अहिंसा आदिके द्वारा विश्वके हितकारकभी हैं।

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