Book Title: Stotratrayi Saklarhat Stotra Virjin Stotra Mahadeo Stotra
Author(s): Hemchandracharya, Kirtichandravijay, Prabodhchandravijay
Publisher: Bhailalbhai Ambalal Petladwala

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ कलास्तोत्रम् स्याद्वादरूपी अमृतसमान जल के सींचनेवाले - वरसनेवाले, उपदेशक, अत एव, सत्त्वानाम् = प्राणियों के, परमानन्दकन्दोद्भेदनवाऽम्बुदः =परम - सर्वोत्तम, आनन्द - सुख, मोक्षसुख, कन्द - कन्दमूल, उद्भेद - अंकुरलाना, प्रकटकरना, नव नवीन, अपूर्व, सर्वोत्तम, अम्बुदवादल । सर्वोत्तम आनन्दरूपी कन्द के अंकुरित - प्रकटकरने में नवीन ( आषाढमास के) वादल के समान, जिनः = जिनेश्वर, शीतलः = श्रीशीतलस्वामी, वः = आप भव्योंका, पातु =अज्ञान, दुःख आदिसे रक्षण करें ॥ १२ ॥ १२ - भावार्थ -- (जैसे नवीन वादल पानी वरसाकर पृथिवीमें रहेहुए कन्दों में अंकुर उत्पन्न करता है, वैसे हीं जिनेश्वर अमृतके समान अमरत्व के देनेवाले स्याद्वाददर्शनका उपदेश कर मोक्षसुखका मार्ग प्रगट कर देते हैं । इसलिये) अमृतकेतुल्य स्याद्वादरूपी पानी के सिंचनउपदेशकरनेवाले मोक्षसुखरूपी कन्दके अंकुर मार्गके प्रगटकरने में 'नवीन ( आषाढ़ मासके) वादलके समान जिनेश्वर श्रीशीतलस्वामी आप भव्यों का भवसे रक्षण करें । ( यहां तत्त्वज्ञान से हीं मुक्ति मिलती है, वह स्याद्वाद के सिवाय दूसरा नहीं है । उपदेशक जिनेश्वर हीं हैं - यह भाव है ) ॥ १२ ॥ • तथा उसके भवरोगार्त्तजन्तूनामगदङ्कारदर्शनः । निःश्रेयसश्रीरमणः श्रेयांसः श्रेयसेऽस्तु वः ॥ १३ ॥ पदार्थ - भवरोगार्त्तजन्तूनाम् = भव- संसार, रोग - दुःख, व्याधि, आर्त - पीडित, जन्तु - प्राणी । भवके दुःखों अथवा भवरूपी

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98