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कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् करामलकवद्विश्वं कलयन् केवलश्रिया । अचिन्त्यमाहात्म्यनिधिः सुविधिर्बोधयेऽस्तु वः ॥११॥
पदार्थ-केवलश्रिया केवल - केवलज्ञान, श्री - माहात्म्य, ऐश्वर्य, प्रभाव, शक्ति, केवलज्ञानकी महिमासे, विश्वम्-लोकालोक को, करामलकवत-कर • हाथ, आमलक - आँवला, वत् - समान, हाथके आँवलेके जैसे, कलयन् जानते हुए - जाननेवाले, अत एव, अचिन्त्यमाहात्म्यनिधिः अचिन्त्य- कल्पनातीत, माहात्म्य - महिमा, निधि - खान, कल्पनातीतमहिमाकी खानसमान, सुविधि: जिनेश्वर श्रीसुविधिनाथ, व आप भव्यों के, बोधये सम्यग्ज्ञानके लिये, अस्तु-हों । ज्ञानप्रद हों ॥ ११ ॥
भावार्थ—जैसे किसीको अपने हाथमें रहेहुए आँवलेका स्पष्ट ज्ञान होता है, उस प्रकारहीं जो केवलज्ञानकी महिमासे विश्व के समस्तद्रव्य तथा उनके पर्यायोंको जानते हैं, अर्थात् विश्वको करामलकवत् साक्षात् देखते हैं, ऐसे कल्पनातीत महिमाकी खानसमान जिनेश्वर श्रीसुविधिस्वामी आप भव्योंके ज्ञानप्रद हों। (यहांजो विश्वका ज्ञाता है, वही यथार्थज्ञान दे सकता है - यह आशय है) ॥ ११ ॥
सत्त्वानां परमानन्दकन्दोद्भेदनवाऽम्बुदः। स्थाद्वादाऽमृतनिःस्यन्दी शीतल पातु वो जिनः॥१२॥
पदार्थ-स्याद्वादाऽमृतनिःस्यन्दी स्याद्वाद - अनेकान्तवाद, अमृत अमृत, पानी, निःस्यन्दी-सींचनेवाले, वरसनेवाले; उपदेशक