Book Title: Srngaramanjari Katha Author(s): Bhojdev, Kalpalata K Munshi Publisher: Bharatiya Vidya BhavanPage 59
________________ ŚṚNGARAMANJARIKATHA obscure. For example in the description of the bawd we read: ग्रहपतिरिव बहुशो भुक्तमीनमेषा. सिकतासन्ततिरिवस्ने होज्झिता चाणक्यनीतिरिव यो येनोपायेन ग्राह्यस्तं तेन गृहूणन्ती । (p. १५ ) 36 Another good example of it is: सुरभि श्वसिते, शुचिमाचारे, धनागममशेषविजयसम्पदाम्, अत्यूर्जं परावजयेषु, परमहिमस्थानमाकृतौ, शिशिरं निखिलक्षान्तिषु । (p. ३७ ) There are instances of 'Sabhanga śleṣas' like: कुरूपयुक्तापि न कृपान्विता । ( P. १८ ) 32 The next figure of speech frequently used is Virodha which is indicated by 'api' and sometimes based on slesa as: द्विजिह्वशतसंश्रयमपि स्निग्धसरलम्, अतिगुरुमप्यगुरुप्रायम् ( पर्वतम् ) ( P. ७९ ) Similes are very common. An interesting simile compares this composition, the SMK, to the heroine called Sxngāramañjarī: शृङ्गारमञ्जरी गद्यप्रवृत्तिरिव सुललितपदा (p. १३ ). Another interesting and important simile is the comparison of a mountain with the author of the work, Bhoja, himself: एतत्कथाकारमिव विराजितपरमारावनीपवंशम् । (p. ७९ ). In the description of the king there is an astronomical simile which compares the King to the different planets. Unfortunately the text is not complete here. There are a few grammatical and metrical similes like: व्याकरणप्रकियेवोपसर्गवशात् परस्मैपदोत्पादनकुशला । (p. १५ ) छन्दः स्थितिरिवोज्ज्वलतनुमध्या । (p. १३ ) A good example of rūpaka is: तरलतरतडिल्लताप्रसरजिह्वस्य बलाकावलिविकटदशनपद्धतेर्दलिताञ्जनपुञ्जमेच कस्य प्रबलझञ्झानिलसमुच्छलद्ब हलधूली धूसरशरीरस्य जलदसमयरजनिचरस्याद्भुतं रटितमाकर्ण्य स्फुटितहृदयानामिव पथिकानां विगलितैरसृग्बिन्दुभिरिवेन्द्रगोपकै रुपाचीयत वातिलम् || (p. २७ ) निखिलमप्य The imagery in the following Utprekṣā is novel and charming: रविकिरण कुञ्चिकोद्घाट्यमानदलकवाटेषु प्रागन्तरुषितैर्यामि कैरिव मधुकरैविमुच्यमानेष्वेकैरपरै स्त्वापतद्भिः प्रतिगृह्यमाणेषु प्रकटितद्वारेषु श्रियो विलासभवनेषु पङ्कजेषु ॥ (p. ६० ) And the following is a good example of Hetütprekṣā: मुकुलितकुमुदकोशकोटरान्तर्निलीनमधुकरतया दिवसकरभयात् प्रतनुतां गतेनान्धकारेणेव ॥ संश्रितानि ( सरांसि ) ( P. ४ ) The figure of speech called Svabhāvokti is abundantly used. For example: निजचापलभ्रमण खेदविधुरेष्वव निरुहस्कन्धशाखान्तरनिलयननिभृतेषु यथायथमुपविष्टेष्वासीनप्रचलायितेन मध्यन्दिनतापतन्द्रीं गमयत्स्वपरेषु च निद्रालसविवशतया शिथिलाङगेषु प्रपतत्सु पुनरुत्पत्यारोहत्सु कपिकुलेषु ।। (p. ४९ ) ; or again: क्रीडातडागिकानामनुकुलीरलेखमच्छिनीदलान्तरालच्छायामाश्रित्य बन्धुरितकन्धरमन्योन्यकण्डूयन सुखान्यनुभूयानुभूय मध्यन्दिनतापतन्द्रीमतिवाहयत्सु चक्रवाकमिथुनेषु । (p. ८५ ) 32. Cf. a verse in Ksemendra's Desopadeśa, p. 11, vs. 5. भगदत्तप्रभावाढ्या कर्णशल्योत्कटस्वरा । सेनेव कुरुराजस्य कुट्टनी किन्तु निष्कृपा || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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