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५५ इसमें साधारण श्रावक-श्राविकाओं की गणना सम्मिलित नहीं है। मात्र व्रतधारियों की ही यहाँ गणना की गई है। सम्भव है यहाँ व्रती संघ के अन्तर्गत उन्हीं को रखा गया हो, जो प्रव्रजित साधुओं की ही होगी। उद्दिष्टत्यागी को भी श्रावक कहा गया है। साधारण श्रावक-श्राविकाओं की गणना नहीं होगी। परिनिर्वाण
राजगृह में उनतीसवाँ वर्षावास कर तीर्थङ्कर महावीर धर्म-प्रचार करते हुए मल्लों की राजधानी अपापापुरी (पावापुरी) पहुँचे। वहाँ के राजा हस्तिपाल ने उनका भावभीना स्वागत किया। धर्मोपदेश देते हुए अपापापुरी में वर्षाकाल के तीन माह व्यतीत हो चुके। चौथे माह की कार्तिक कृष्णा अमावस्या का प्रात:काल भगवान् महावीर का अन्तिम समय था। वे अनवरत धर्मदेशना दे रहे थे। उनकी सभा में काशी, कोशल के लिच्छवी, नौ मल्ल और अठारह गणराजा भी उपस्थित थे। अन्त में उन्होंने अधातिया कर्मों का भी क्षय कर परम निर्वाण पद प्राप्त किया।३९ पालि साहित्य में भी इस घटना का वर्णन मिलता है।
भगवान् महावीर ने तीस वर्ष की आयु में महाभिनिष्क्रमण किया एवं छद्मस्थ काल के बारह और केवलीचर्या के तीस, कुल बयालीस चातुर्मास किये। इस प्रकार कुल मिलाकर महावीर की आयु बहत्तर वर्ष की मानी गई है तदनुसार उनका परिनिर्वाण ५२७ ई०पू० में हुआ।
इस निर्वाण प्राप्ति के उपलक्ष्य में लिच्छवि, मल्ल राजा महाराजाओं ने दीप जलाकर निर्वाण महोत्सव मनाया। आज भी दीपावली के रूप में उसे धूमधाम से मनाया जाता है। पूर्ववर्ती तीर्थङ्करों का आकलन
कल्पसत्र के प्रथम भाग में भगवान महावीर के बाद तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ का जीवन चरित दिया गया है। वे महावीर से लगभग २५०वर्ष पूर्व हुए थे। उनका जन्म वाराणसी में पौष वदि दशमी को विशाखा नक्षत्र में वामा देवी के कोख से हुआ था। लगभग बीस वर्ष की आयु में पार्श्वनाथ का विवाह राजा प्रसेनजित की पुत्री प्रभावती के साथ हुआ।
उसी समय कमठ नाम का एक तपस्वी हठयोग कर रहा था। पार्श्वनाथ ने उसे सही तपस्या का रूप समझाया। वहीं एक लकड़ी जल रही थी। पार्श्व ने कहा- इस लकड़ी के अन्दर एक सर्प युगल झुलस रहा है। इसे निकालिए। निकालने पर उनकी बात सही निकली। पार्श्व ने अधमरे उस सर्पयुगल को णमोकार मन्त्र का पाठ सुनाया जिसके प्रभाव से मरकर वे धरणेन्द्र और पद्मावती हुए। कमठ का जीव भी मेघमाली
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