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है कि हमें उसकी अनुभूति से भरे शब्दों को सुनने का अवसर मिलता है। हम सही श्रावक बन जाते हैं। श्रावक का तात्पर्य ही यह है जो वीतरागी साधक की बात सुनने के लिए तैयार हो जाता है, जिसका मन निर्मल होकर अध्यात्म की ओर बढ़ जाता है, निर्ममत्व होकर आत्मचिन्तन करना स्वीकार कर लेता है।
आत्मचिन्तन करने वाला साधक ऋजुता की ओर बढ़ता है, जागरूक प्रज्ञा उसके साथ रहती है, सांसारिक चिन्तन से उसकी प्रज्ञा और भी गहरी होती जाती है। मृत्यु-चिन्तन से उसकी सत्य साधना में निखार आता है। वह गंगा स्नानादि जैसे मिथ्यात्व भरे विचारों को तो पहले ही दफना देता है। साथ ही जीवनलोभ, इन्द्रियलोभ, आरोग्यलोभ और उपयोगलोभ से भी निवृत्त हो जाता है (चा०सा० ६३.२)।
___ यहां शौच और त्याग में अन्तर समझ लेना चाहिए। शौचधर्म में परिग्रह के न रहने पर भी कर्मोदय से होने वाली तृष्णा की निवृत्ति की जाती है पर, त्याग में विद्यमान परिग्रह छोड़ा जाता है, संयत के योग्य ज्ञानादि का दान दिया जाता है। इसी तरह शौचधर्म और आकिंचन्य अर्थ में भी अन्तर है। शौचधर्म लोभ की निवृत्ति के लिए है, जबकि आकिंचन्य धर्म स्वशरीर में निर्ममत्व बढ़ाने के लिए है।
निर्मोही व्यक्ति ही पूर्ण अहिंसक होता है। अहिंसा का तात्पर्य है दूसरे की स्वतन्त्रता में बाधा नहीं डालना। प्रत्येक पदार्थ स्वतन्त्र है। उसकी स्वतन्त्रता में खलल डालना हिंसा है। अचेतन पदार्थ तो परतन्त्र है ही पर चेतन पदार्थ की स्वतन्त्रता का हनन करना हिंसा है और हिंसा को शुचिता नहीं कहा जा सकता है। चींटी की स्वतन्त्रता को जब हम अपने हाथ में ले लेते हैं, तो हिंसा हो जाती है।
अन्तर शुद्ध हो जाने पर ही सही साधुता प्रकट होती है। वह भोगी को भी अपमानित नहीं करता और न ही अपनी साधता को अहङ्कार का कारण बनने देता है। वह उपदेश देता है पर आदेश कभी नहीं देता। साधु में अपने साधुत्व का अहङ्कार आ गया तो उसकी साधता समाप्त हो जाती है। इतना ही नहीं, यह सम्भावना अधिक है कि साधु जो दोष दूसरे में देख रहा है वह दोष उसके अन्तर में भरा हो। सच तो यह है कि सही साधुता ही शुचिता है।
सन्दर्भ
कंखाभावणिवित्तं किच्चा वेरग्गभावणाजुत्तो। जो वदृदि परममुणी तस्स दु धम्मो हवे सोच्चं।। - बा०अणु० ७५. लोभप्रकाराणामुपरम: शौचम् - स०सि०, ६.१२.
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