Book Title: Sramana 1999 07
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 196
________________ १९२ में लेखक ने गागर में सागर भरने का जो कार्य किया है वह स्तुत्य है । ऐसे सुन्दर ग्रन्थ के लेखन व प्रकाशन के लिये लेखक और प्रकाशक दोनों ही बधाई के पात्र हैं। इसिभासियाइं का प्राकृत- संस्कृत शब्दकोश : लेखक - डॉ० के० आर० चन्द्र; प्रकाशक - प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद ; प्रथम संस्करण १९९८ ई०; आकार - डिमाई; पृष्ठ १४०, मूल्य – ६० रुपये। जैन आगम साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ के रूप में आचारांग और इसिभासियाई माना जाता है। इसिभासियाई का काल विद्वानों ने लगभग दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व माना है। इसकी भाषा अर्धमागधी है, जिसमें इसके प्राचीनतम रूप प्राप्त होते हैं। प्रो० के० आर० चन्द्र द्वारा संकलित इस ग्रन्थ के प्राकृत शब्दों का कोश उसकी संस्कृत छाया के साथ प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद से प्रकाशित हुई है। पुस्तक में अकारादि क्रम से शब्दों को सजाया गया है तथा उसके सामने उस शब्द का संस्कृत रूप है । अंकों में प्रथम अंक ग्रन्थ का अध्याय, द्वितीय और तृतीय अंक पृष्ठ संख्या और पंक्ति को इंगित करता है। इन अंकों का एकाधिक प्रयोग उस शब्द के उसी पंक्ति में एकाधिक प्रयोग को संकेतित करता है। गाथा के बाद वाला अंक गाथा संख्या को सूचित कर है । इस शब्द-कोश में डब्ल्यू ० शूबिंग द्वारा सम्पादित और लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद द्वारा १९७४ में प्रकाशित संस्करण को आधार बनाया गया है। कोश में उल्लिखित शब्दों से इसिभासियाई में प्रयुक्त अर्धमागधी और उस पर दूसरे प्राकृतों के प्रभाव को देखा जा सकता है। ग्रन्थ में प्राकृत व्याकरण के नियमों से परे शब्दों की बहुतायत है । जैसे अंकुर निप्पत्ती की जगह अंकुरनिप्पत्ती ( पृ० १), अर्हति > अग्घती ( पृ० ३), आत्मनः > अप्पाहु ( पृ० ९), अधोगामिनः > अहेगामी (पृ० १४) इत्यादि। इसमें शौरसेनी भाषा के प्रभाव जैसे ध का ध ही रह जाना अनिधन:> अणिधणे ( पृ० ४) तथा अनिहण भी लिखा है । इह हध ( पृ० १९), उदधि उदधि ( पृ० २२), तथैव तव, तथा तथा तथा, इत्यादि प्राप्त होता है। प्रथम एकवचन अकारान्त में ए और ओ दोनों शब्द प्रयुक्त हैं जैसे— अतीतः > अतीते ( पृ० ७), आगतः>आगते, आगम: > आगमो ( पृ० १४ ) । मध्यवर्ती व्यंजन का लोप नहीं भी हुआ है, जैसे अभय: > उभ्यो ( पृ० १३ ), ष्फ ज्यों का त्यों रह गया, जैसे पुष्पघाते (पृ० ८६), उर्ध्व का उद्ध ( पृ० २२) और उड्ठ ( पृ० २१) दोनों रूप मिलता है। इस प्रकार के विविधतापूर्ण शब्द प्रस्तुत ग्रन्थ में बहुलता से पाये जाते हैं जिन्हें प्रस्तुत कोश में संकलित किया गया है। कोश अत्यधिक श्रम और विद्वतापूर्ण ढंग से सजाया गया है, इसके प्रधान सम्पादक प्राकृत भाषा एवं जैन विद्या के प्रकाण्ड विद्वान् पण्डित दलसुख मालवणिया और डॉ० एच०सी० भायाणी हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only अतुल कुमार प्रसाद www.jainelibrary.org

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