Book Title: Sramana 1999 07
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 193
________________ १८९ विश्वविश्रुत विद्वानों ने उक्त पुस्तक की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। प्रस्तुत पुस्तक उसी ग्रन्थ का गुजराती अनुवाद है। इसके अनुवादक भाई श्री पार्श्व सम्भवतः वही व्यक्ति हैं जिन्होंने अंचलगच्छका इतिहास (गुजराती), अंचलगच्छीयलेखसंग्रह, अंचलगच्छीयप्रतिष्ठालेखो आदि प्रामाणिक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। श्री भूतोड़िया जी ने अपने इस ग्रन्थ में अनेक ऐसे विषयों की चर्चा की है जिनके बारे में अन्यत्र या तो अल्प अथवा अप्रमाणिक जानकारी ही अब तक उपलब्ध रही है। गुजराती अनुवाद उपलब्ध हो जाने से गूर्जर धरा पर भी इसका व्यापक प्रचार-प्रसार होगा, इसमें सन्देह नहीं। ऐसे सुन्दर, प्रामाणिक और लोकोपयोगी ग्रन्थ का गुजराती संस्करण प्रकाशित करने के उपलक्ष्य में लेखक, गुजराती अनुवादक तथा प्रकाशन में सहयोगी सभी बधाई के पात्र हैं। अभिधानराजेन्द्रकोश में सुक्तिसुधारस : भाग १-७, लेखिका- साध्वी डॉ० प्रियदर्शना जी एवं साध्वी डॉ० सुदर्शना जी म०सा०; प्राप्ति स्थल, श्री मदनराज जी जैन, C/o शा० देवचन्दजी छगनलाल जी, आधुनिक वस्त्र विक्रेता, सदर बाजार, भीनमाल, जिला-जालौर (राज.) ३४३०२९; आकार-डिमाई, पक्की बाइंडिग; प्रत्येक भाग लगभग २०० पृष्ठ; मूल्य प्रथम व षष्ठ भाग ७५ रुपये, शेष भाग ५० रुपये। आचार्य श्री विजय राजेन्द्रसूरि जी महाराज इस युग के महान् सन्त थे। उनके द्वारा सात भागों में रचित अभिधानराजेन्द्रकोश विश्व की अमूल्य धरोहर है। विवेच्य पुस्तक में साध्वीद्वय ने उक्त महाग्रन्थ से २६६७ सूक्तियों को संकलित कर उन्हें हिन्दी भाषा में सूक्ति सुधारस के रूप में सात खण्डों में तैयार किया है। प्रथम खण्ड में 'अ से 'ह' तक के शीर्षकों के अन्तर्गत सूक्तियाँ संजोयी गयी हैं। अन्त में अकारादि क्रम से अनुक्रमणिका दी गयी है। यही क्रम आगे के सभी खण्डों में दिखाई देता है। प्रत्येक खण्ड में ५ परिशिष्ट हैं जिनमें क्रमश: अकारादि अनुक्रमणिका, विषयानुक्रमणिका, अभिधानराजेन्द्रकोश पृष्ठ संख्या अनुक्रमणिका, जैन एवं जैनेतर ग्रन्थ : गाथ श्लोकादिअनुक्रमणिका और सन्दर्भसूची दी गयी है। ग्रन्थ की साज-सज्जा अत्यन्त आकर्षक तथा मुद्रण निदोष एवं कलापूर्ण है। इस ग्रन्थ का जैन समाज में निश्चय है सर्वत्र आदर होगा। ऐसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का प्रणयन कर साध्वीवृन्द ने समाज का महान उपकार किया है। हमें विश्वास है कि भविष्य में भी उनके द्वारा ऐसे ही लोकोपयोग ग्रन्थ प्रकाश में आते रहेंगे। ऐसी हो जीने की शैली : लेखक– मुनि श्री चन्द्रप्रभ सागर; प्रकाशकश्री जितयशा फाउण्डेशन, ९ सी, एस्प्लानेड रोईस्ट, कलकत्ता ७०००६९; आकारडिमाई; प्रथम संस्करण १९९९ ई०, पृष्ठ ८+१४४; मूल्य २५/- रुपये मात्र। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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