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मन पर नकेल लगाना ही संयम है
संयम की डोर
सत्य से साक्षात्कार करने पर संयम की डोर हाथ में थम जाती है। संयम का तात्पर्य है- स्वयं की शक्ति से परिचित हो जाना और मन की गति को बांध लेना। मन बेलगाम है, बेतहासा भागता रहता है और अतृप्त वासनाओं की ओर अन्तहीन दौड़ लगाता रहता है। उस दौड़ पर काबू पाने के लिए स्वाध्याय और संयम की आवश्यकता होती है, ताकि परम शान्ति को प्राप्त करने के लिए साधक अपनी शक्ति को पहचान कर उस दिशा में कदम बढ़ा सके।
साधना में संयम की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी लता को एक सहारे की। लता बिना सहारा बंधे पनप नहीं पाती, उसी तरह आत्मसाधना भी बिना संयम के सुगन्धित नहीं हो पाती। संयम जीवनरूपी साइकिल के लिए ब्रेक का काम करता है, सड़क पर चलने के नियमों की याद दिलाता है और सन्तुलन बनाये रखने के लिए ध्यान कराता है। वह एक ऐसा बल्ब है जो बिजली के संगृहीत प्रवाह को संभाल लेता है। मन पर नकेल स्वानुभूतिपूर्वक
मन की बेजोड़ शक्ति पर नकेल लगाने की जरूरत महसूस होनी चाहिए। वह कहीं अति पर न दौड़ जाये। उसकी गति पर सतत जागरूकता बनाये रखने की आवश्यकता है। मन की रेखायें जानने के लिए डॉ० ग्रीन ने 'फीड बैक' नामक यन्त्र बनाया है, जिससे भावों की दौड़ का अन्दाजा लगाया जा सकता है। चित्त जहाँ पापमय होने लगे, मन को वहाँ से तुरन्त हटाने का प्रयत्न करना चाहिए। मन की एकाग्रता उसकी पवित्रता में है। पवित्रता लाने के लिए उसका मार्जन करना ही पड़ेगा। उसे मारने की जरूरत नहीं, छानने की जरूरत है। सत्कार्यों में रस पैदा हो जाये तो मन की दौड़ स्वत: कम हो जाती है। वाचस्पति मिश्र 'टीका' करने में इतने तन्मय हो गये कि वे विवाहित होने पर भी ब्रह्मचारी रहे और बिना नमक का भोजन वर्षों तक करते रहे। 'टीका' समाप्त होने पर ही उन्हें नमक का ध्यान आया और स्मरण आया कि उनकी पत्नी भी है, जिसने इतना सहयोग किया है। वीणा के तार से संगीत तभी पैदा होता है, जब वे जुड़ जाते हैं। सम्यक् ज्ञानी की यही पहचान है।
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