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में अधिक हुआ। बड़े-बड़े राजे-महाराजे भी उनके अनुयायी भक्त थे। श्रावस्ती का नरेश प्रसेनजित, मगध का नरेश श्रेणिक, चम्पा का नरेश दधिवाहन, कौशाम्बी का नरेश शतानीक, कलिंग का नरेश जितशत्रु आदि जैसे प्रतापी महाराजा भगवान् के भक्त और उपासक थे।
दक्षिणापथ में भी भगवान् का विहार हुआ। उस समय यह भाग हेमांगद के नाम से विश्रुत था। महाराजा सत्यन्धर के सुपुत्र जीवंधर उस समय वहाँ के राजा थे। राजपुर उसकी राजधानी थी। जैनधर्म का प्रचार यद्यपि उस प्रदेश में पहले से ही था पर महावीर के भ्रमण से उसमें एक नया उत्साह और नयी प्रेरणा जागरित हुई। आज भी दक्षिण में जैनधर्म, साहित्य और कला के प्रमाण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। श्रीलंका आदि दक्षिणवर्ती देशों में उस समय जैनधर्म पहुँच गया था । पालि साहित्य, विशेषतः महावंश इसका विश्वसनीय प्रमाण है ।
संघ प्रमाण
भगवान् तीर्थङ्कर महावीर का व्रती संघ ३८
१. गणधर
२. गण
३. केदा
४.
मन:पर्ययज्ञानी
५.
अवधिज्ञानो
६. चौदह पूर्वधारी
७. वादी
८. वैक्रियकलब्धिधारी
९. अनुत्तरोपपातिकमुनि
१०. साधु
११. साध्वियाँ (आर्यिकायें)
१२. श्रावक
१३. श्राविकायें
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इस प्रकार था -
११
७ अथवा ९
७००
५००
१३००
३००
४००
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७००
८००
१४०००
३६०००
१५९०००
३१८०००
५३१७१८
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