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जीवन की सरलता ही मृदुता है
उत्तम क्षमाधर्म यदि जीवन में आ जाये तो उत्तम मार्दव-धर्म स्वत: आ जाता है। क्रोध की उत्पत्ति अहङ्कार पर चोट लगने से होती है। अहङ्कार यदि समाप्त हो जाये तो मृदुता, सरलता और विनय अपने आप आ जाती हैं। इसलिए मार्दव का प्रतिपक्षी मान है और उसके विगलित हो जाने पर विनय गुण का आविर्भाव होता है। __मूल्याङ्कन का पैमाना हर एक का अलग-अलग होता है। यह पैमाना उसके संस्कारों और भावों पर निर्भर करता है। उनसे ही उसकी पसन्दगी का पता चल जाता है। धर्म की ओर कदम बढ़ाने के लिए और उस पर स्थिर रहने के लिए भी वैसे ही संस्कारों की अपेक्षा होती है। साधना में रचा-पचा व्यक्ति ऐसे संस्कार देने में सक्षम होता है। वह साधना नये आयाम खोलती है और रूपान्तरण की प्रक्रिया को जन्म देती है। वह अहं से अहँ बना देती है और अन्तर से स्फुटित होकर जीवन का कायाकल्प कर देती है। विजातीय तत्त्व के अलग होने पर ही प्रस्तर प्रतिमा का रूप लेता है। ज्ञेय, हेय और उपादेय को जान लेने पर ही 'कोऽहं' का उत्तर मिल पाता है। तभी मान लेप की भांति झरने लगता है। संकल्प और जागरण
किसी भी काम को पूरा करने में चार चरणों को पार करना पड़ता है - इच्छा, आकांक्षा, संकल्प और भावना। भरत ने बाहुबली से युद्ध करने का निश्चय इसी क्रम से किया और अन्त में इच्छा को विजयी बनाया। मान जैसे राक्षस से मुक्त होने के लिए भी इसी क्रम को अपनाना पड़ेगा और इस महापथ पर चलते-चलते भयानक मानसिक संघर्षों से भी लोहा लेना पड़ेगा।
अन्धकार से भरे जीवन में जागरण एक अमूल्य औषधि के रूप में आता है और मान का दुष्परिणाम एक नया अनुभव दे जाता है, जिससे आस्था का निर्माण होता है। संकल्प का जागरण भी तभी हो पाता है। वैद्यराजों द्वारा अनेक प्रयत्न करने के बावजूद सिरदर्द दूर न होने पर, क्रोधित होकर राजा भोज ने आयुर्वेद के ग्रन्थों की आहति दे दी। लेकिन जीवक ने उसके सिर में से मछली निकालकर जब दर्द दूर कर दिया तो उसके मन में आयुर्वेद के प्रति पुन: आस्था जाग गई। अत: किसी कार्य की
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