________________
६३
२६. विस्तार से देखिये, लेखक का ग्रन्थ- Jainism in Buddhist Literature,
नागपुर, १९७२। २७. षटखण्डागम, भाग ९, पृष्ठ १२९ । २८. विशेषावश्यकभाष्य, १५४०-६०। २९. वही, १६१०-१४। ३०. वही, १६५०-१६५४। ३१. वही, १६९०-१७६८। ३२. वही, १७७०-१८०९। ३३. वही, १८०३-१८६०। ३४. वही, १८६७-१८८३। ३५. वही, १८८८-१८९०। ३६. वही, १९०८-१९४७। ३७. उत्तरपुराण, ७४, ३७३-३७४। ३८. कल्पसूत्र, १३३-१४४; उत्तरपुराण ७४, ३७३-३७९, तिलोयपणत्ति
४.११६६-११७६; हरिवंशपुराण, ६०,५३२-४४०, यहाँ कहीं-कही श्रावकों की संख्या एक लाख और श्राविकाओं की संख्या तीन लाख भी बतायी
गई है। ३९. कल्पसूत्र, १२६; उत्तरपुराण।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org