Book Title: Sirival Kaha
Author(s): Rajshekharsuri
Publisher: Sisodara Shwe Mu Pu Jain Sangh

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Page 229
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir * ******************* तं भजिऊण मयणा - पइणो नरनाहनमियचलणस्स । जेणाहं दासत्तं, कराविया तं जयइ कम्मं ॥९७६॥ इक्कच्चिय मह भइणी, मयणा धन्नाण धूरि लहइ लिहं । जीए निम्मलसीलं, फलियं एयारिसफलेहिं ॥९७७॥ कयपावाण जियाणं, मज्झे पढमा अहं न संदेहो । कुलसीलवज्जियाए, चरियं एयारिसं जीए ॥९७८॥ मयणाए जिणधम्मो, फलिओ कप्पदुमुब्ब सुफलेहिं । मह पुण मिच्छाधम्मो, जाओ विसपायवसरिच्छो ॥९७९॥ तं गर्वं भङ्क्त्वा -चूरयित्वा नरनाथैः-नरेन्द्रैः नतौ चलनौ-पादौ यस्य स तस्य मदनापतेः-मदनसुन्दर्या भर्तुर्दासत्वं येन कर्मणाऽहं कारिता तत्कर्मजयति-सर्वोत्कर्षेण वर्तते ॥९७६॥धन्यानां-धन्यस्त्रीणां धुरि-आदौ एका मम भगिनी-स्वसामदनामदनसुन्दरी एव रेखां लभते-प्राप्नोति, यस्या निर्मलशीलमेतादृशैः फलैः फलितम् ॥९७७॥ कृतं पापं यैस्ते कृतपापास्तेषां जीवानां मध्ये प्रथमा- आद्याऽहमस्मि, अत्र न सन्देहः, कथमित्याह- कुलशीलवर्जिताया-उत्तमकुलाचाररहिताया यस्या एतादृशं चरितं-चरित्रं वर्तते ॥९७८॥ मदनाया जिनधर्मः कल्पद्रुमः- कल्पवृक्ष इव सुष्ठु-शोभनैः फलैः फलितः, मम पुनर्मिथ्याधर्मो-मिथ्यात्वमयो धर्मो विषपादपो-विषवृक्षस्तेन सदृक्षः-सदृशो जातोऽस्ति, दुष्टफलदायकत्वात् ॥९७९॥ *********************** For Private and Personal Use Only

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