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द्रव्य संकोच - पांचों अंगों को संकुचित कर विनयपूर्वक क्रिया जाने वाला नमन ।
भाव संकोच - पांच इन्द्रियां को मन:पूर्वक समेटकर आमनस्क भाव द्वारा किया जाने वाला नमन।
प्रथम के 5 पदों में परमेष्ठि को याद कर वंदन किया जाता है। चूलिका के 4 पदों में पाप प्रणाशन एवं मोक्ष मंगल प्राप्ति की चाहना की गई है।
CONTEMPLATE TO ACT AS IF THE SOUL IS TAKING A FORM OF 5 MAHATMAN:ARIHANT, SIDDH, ACHARYA, UPADHYAY, SADHU. __ शब्दानुसंधान के पश्चात् अर्थानुसंधान, तत्वानुसंधान एवं स्वरूपानुसंधान का विचार करने से पंच परमेष्ठि तत्वों के स्पर्श का अनुभव होता है।
नमामि सव्व जिणाणं खमामि सव्व जीवाणं । (खमामि - क्षमा मांगना) इन दो मंत्रों से चौथे से चौदहवें गुणस्थानक पर रहे हुए सर्व जीवों को नमस्कार हो जाता
स्वरुपानुसंधान पराकाष्ठा पर पहुँचाता है । अनादिकाल से जीव देहाध्यास में जी रहा है। देह के साथ एकता की अनुभूति के पर्याय में भूल से खो गया है।
मेरा ऐश्वर्य तो अकाय जीव का है । देहाध्यास छोड़कर आत्मध्यास को प्राप्त करना है। आत्मा के साथ एकमेकता स्थापित करना है। इसकी अनुभूति, आत्मा के अनंत गुणों तथा चैतन्य शक्ति रुप परमात्मा के साथ का अभिन्न अनुभव करवाता है। ___ “अहो आत्मन् ! अहो आत्मन् !" भाव को पुष्ट करते करते धाती कर्मों का नाश होता है। स्वरुपानुसंधान के अंतिम चरण में हरिभद्रसूरि महाराजा द्वारा प्रतिपादित आराधना क्रम के पाँच सोपान प्रणिधान प्रवृत्त विघ्नजय सिद्धि विनियोग होता है । “सवि जीव करूं शासन रसी” का उत्कृष्टतम परार्थभाव, निष्कंप विकास के शिखर पर पहुंचकर परमात्म पद को पाता है।
जिनराशन का सार नवकार है, नवकार का सार सामायिक है । नवकार के पाँचों परमेष्ठि को सामायिक होती है।
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