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तत्व का द्वेषी :- भौतिक सुख में एकांत सुख मानने वाला जीव, मोक्ष की भूमिका में कृत्रिम राग वाला होता है ।
क्षयोपशम भाव :- जिस भाव के द्वारा आत्मा के गुणों का संवेदन होता है ।
औदायिक भाव :- जिस भाव के द्वारा संसार में सुख का संवेदन होता है । वे हैं - नींद, नशा, स्पर्श, रस, वर्ण, गंध, शब्द ।
गुणस्थानक :- पुद्गल में सुख नहीं, आत्मा में सुख है ।
ऐसा अनुभव पूर्वक निर्णय कराने वाली अवस्था । सकाम निर्जरा कराने वाली अवस्था ।
पुण्यानुबंधी पुण्य का हेतु साधने वाली अवस्था ।
संपूर्ण अहिंसा - सिद्धदशा में रहे हुए जीव की शक्ति, जो सभी जीवों को अभयदान देती है । ऐसी कोई जड़ वस्तु वर्तमान में दिखाई देती हैं वह भूतकाल के किसी जीव का कलेवर है ।
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सत्य :- प्रकृति के हितकारी नीति-नियमों का अनुसरण करना उसका नाम सत्य । पुद्गल (देह) को अपना समझना (देह) यह असत्य, वचन और काया से केवलज्ञानी को भी होता है ।
चरमावर्त काल :- जिस समय में गुण का अद्वेष वर्त रहा हो ।
पहला गुण स्थान :- जिस दशा में जीव का तात्विक प्रवेश होता है, अपुनर्बंधक अवस्था, , योग की प्रथम भूमिका, मुक्ति का अद्वेष भाव प्रारंभ होता है ।
1. अपूर्व प्राप्ति का आनंद, 2. क्रिया मार्ग में सूक्ष्म आलोचना, 3. भव का तीव्र भय, 4. विधि का तात्विक बहुमान ।
मुक्ति की तात्विक जिज्ञासा :- चरम यथा प्रवृत्तिकरण का भाव ।
मुक्ति की तात्विक इच्छा :- बोधिबीज की प्राप्ति, प्रथम योग दृष्टि ।
तत्व का अज्ञान :- मोह का शरीर जिसकी करोड़ रज्जु (बंधन) 18 पाप स्थानक हैं । तत्व का ज्ञान :- चारित्र धर्म का शरीर, तत्वज्ञान के बिना संसार से छुटकारा नहीं हो
सकता ।
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