Book Title: Shrut Bhini Ankho Me Bijli Chamke
Author(s): Vijay Doshi
Publisher: Vijay Doshi
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©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®OGOG भयंकर जिव्हा की क्लेशकारी भाषा से रौद्र ध्यान में रहता है। पुण्य कर्म के साधन होने के बाद भी सुख नहीं भोग सकता, यदि भोगाता है तो भी उसमें आशीर्वाद प्राप्त नहीं हो सकता।
प्र. :- हे प्रभो ! जीव को भव सिद्धि रूप स्वाभाविक है या पारिणामिक ?
उत्तर :- भव सिद्धत्व स्वाभाविक ही होता है । पारिणामिक नहीं । जीव का चैतन्य स्वाभाविक है । बालत्व, यौवन, वृद्धत्व, स्थूलत्व, कृत्व ये सभी पारिणामिक भाव है। ये सभी आकर वापिस समूल रुप से चले जाते हैं । चैतन्य में वृद्धि या ह्रास भले ही होता है किन्तु जीव में से चैतन्य कभी जाता नहीं । किसी के द्वारा या कोई भी कारण नहीं जा सकता।
पत्थर में मूर्ति या स्तंभ आदि पर्यायों में बदल जाता है, किन्तु मूल कठोरता नहीं जाती। भावों में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय या कालद्रव्य का चमत्कार काम करता है, ईश्वर का नहीं।
भवसिद्धि यानि जो जीव आज, कल, दो, तीन पांच या संख्याता, असंख्याता या अनंत भव करके भी सिद्धि प्राप्त करेंगे, वे भव सिद्धिक जीव कहलाते हैं । अभव्यसिद्धिक किसी भी काल और किसी भी सहायता से भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते।
मोक्ष की मर्यादा में आने के लिए पाप स्थानकों का मार्ग बंध करना पड़ता है, अरिहंत के स्व-स्वरुप का साक्षात्कार करना पड़ता है, अतः सम्यग्दर्शन निश्चय रुप में होना चाहिए। ___ भगवान महावीर को काल लब्धि का परिपाक नहीं हुआ इस कारण सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद 21 भव तक मोक्ष की मर्यादा भूमि में नहीं आ सके । तीसरा भव मरिची के भव में शिष्य संपत्ति के लोभ में दर्शन मोहनीय के चक्कर में पड़ गए। संयम भ्रष्ट हो गए। बीच के 12 भव तक खोए हुए सम्यक् दर्शन को प्राप्त करने में समर्थ नहीं हो सके। 16वें भव में चारित्र प्राप्ति हुई परन्तु मोक्ष मर्यादा से दूर क्रोधावेश में आकर नियाणा बांध लिया। 18वें भव में नियाणा का फल भोगा और 7वीं नरक में गए। 20वें भव में सिंह का भवकर चौथी नरक में गए । नयसार के भव के बाद 21वें भव तक अत्यंत भयंकर अनंतानुबंधी कषाय और मोहनीय संबंधी कर्म भुक्तान के बाद 22वें भव में मोक्ष की मर्यादा में आए । इस कारण पाप स्थानक का मार्ग बंद हो गया । संवर के द्वार खूल गए । स्व-हृदय में विराजित अरिहंत 9@G©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®© 404 9@GO®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®e

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