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प्रथम गुणस्थान से 6वें गुणस्थान तक निमित्त प्रधान भूमिका है। मूंग का पानी भी जिसको न पचता हो और रबड़ी खाने की बात करना - यह व्यवहार नय को न अपनाकर निश्चय नय के पीछे दौड़ने जैसा है ।
तीर्थंकर की प्रज्ञा के ऊपर न्यौछावर करने जैसा कोई तत्व है तो एकमात्र अनेकान्तवाद है । जिसको समकित प्राप्त करना हो, पूर्ण सत्य को समझना हो तो यह एकमात्र उपाय है स्याद्वाद की रुचि यही सम्यक्त्व का बीज है । अनेक दृष्टिकोण से सत्य का विचार किया जाता है । जो समझ में आ जाए तो वही अनेकान्तवाद है । जहाँ सर्वांग दृष्टि होगी वहाँ अनेकान्तवाद होगा ।
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जैन धर्म में किसी वस्तु का आग्रह नहीं, उनको अनेकान्तवाद नहीं माना है । स्यादवाद - उलट-पलट जैसा सिद्धांत नहीं है । “जिनपूजा करना ही अच्छा है यह एकांतवाद नहीं है । "
अनेकान्तवाद की अन्य पहचान सापेक्षवाद है । अकेली भक्ति नहीं चलती उसके साथ विवेक व ज्ञान भी चाहिए । तत्व समझोगे तो उसमें प्राण आ जाएंगे । भक्ति करते-करते ही I समर्पण का बल मिलता है । समकित की श्रद्धा प्राप्त करने का अमूल्य उपाय है - स्याद्वाद ।
स्याद्वाद शब्द का प्रयोग वाणी से संबंधित है । वाणी में सापेक्षता होनी चाहिए, तीर्थंकर की वाणी सापेक्ष है ।
* 'यह मनुष्य हैं' वर्तमान की अपेक्षा से सत्य है । भूत काल में पशुयोनी से आया है और भविष्यकाल अन्य गति में जाना हो - सापेक्षता ।
* यह मकान सीमेंट कांक्रीट का बना हुआ है किन्तु पत्थर का बना हुआ नहीं तो पत्थर की अपेक्षा से मकान का अस्तित्व ही नहीं - सापेक्षता आ गई ।
* 'शांतिभाई ऑफिस गए हैं' क्षेत्र की अपेक्षा से हाल घर में उनका अस्तित्व ही नहीं । इसलिए वे सब जगह नहीं है । सापेक्षता आ गई ।
इसी प्रकार भावात्मक, अभावात्मक अपेक्षा भी होती है। आत्मा, परमात्मा, मोक्ष मार्ग की भूमिका में भी स्याद्वाद मय वाणी आती है ।
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