Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 12
________________ विषय वस्तु O0 श्री तारण तरण श्रावकाचार विषय वस्तु : गागर में सागर Sou श्री श्रावकाचार जी अपनी बात सन् १९८8 बसंतपंचमी परदीक्षा के बाद ज्ञान ध्यान साधनास्वाध्याय आदिचलता रहा, सन् १९८६ में तीर्थक्षेत्र श्री निसईजीमल्हारगढ़ में अध्यात्म वाणी जी का संपादन हुआ, जिसमें विक्रम संवत् ११७२-१५८५ की हस्तलिखित चौदह गंथों की प्रतियों से मिलान कर संशोधन किया गया, उस समय इन गथों को पढ़ने समझने का विशेष अवसर प्राप्त हुआ तथा उसी समय से ऐसी भावना हुई कि गुरु गंथों की विशिष्ट टीकायें होना चाहिये। इसी बीच श्रीरत्नकरण्ड श्रावकाचारकी श्रीपं. सदासुखदासजी द्वारा की गई टीका के स्वाध्याय करने का योग बना, टीका पढ़ते-पढ़ते पुन: ऐसे भाव आये कि श्री गुरु महाराज के श्रावकाचार की भी ऐसी टीका होना चाहिये। ब. नेमीजी से चर्चा हुई, उन्होंने टीका लिखने के लिये प्रोत्साहन दिया और सहज में टीका लिखने का योग बन गया। विशेष योग्यताऔरपढ़े लिखेन होने के कारण बहुत सावधानी रखते है हए आगम गंथों के आधार से टीका लिखने का प्रयास किया है। श्री गुरुमहाराज की अध्यात्म दृष्टि साधना का अनुभव तथा वर्तमान समय में धर्म के नाम पर होने वाले बाह्य आडम्बर कियाकाँड से हटकर सत्य धर्म साधना, अध्यात्म दृष्टि, सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग: का वास्तविकस्वरूपक्या है? वह इस श्रावकाचारगंथ में निश्चय-व्यवहार के समन्वय पूर्वक प्रतिपादित किया है। अपनी बुद्धि और पात्रतानुसार बहुत सावधानी से टीका करने का प्रयास किया है फिर भी भूल औरगल्तियाँ होना स्वाभाविक है, पहला प्रयास है। विज्ञजन ज्ञानी साधक भूल सुधार कर पढ़ेंगे, जो गल्तियाँ हो उससे अवगत करायेंगे तथा श्री गुरुमहाराज के अनुभव का लाभ लेते हुए अपने जीवन में सत्यधर्म और संयम काबीजारोपण करमुक्तिमार्ग प्रशस्त करेंगे ऐसी पवित्र भावना है, गल्तियों के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ। tododernetsadeiral १. देव गुरु शास्त्र को उनके स्वरूप सहित नमस्कार - गाथा १ से १४ तक २. अव्रत सम्यक्दृष्टि द्वारा वस्तु स्वरूप का चिन्तन गाथा १५ से ४६ तक ३. आत्मा के तीन रूप और उनका स्वरूप गाथा ४७ से १९४ तक बहिरात्मा का स्वरूप गाथा ५० से १६७ तक अन्तरात्मा का स्वरूप गाथा १६८ से १९४ तक ४. अन्तरात्मा के तीन लिंग और त्रेपन क्रियाओं का वर्णन गाथा १९५ से ४६० तक अ.जघन्यलिंग अव्रत सम्यक्दृष्टि का आचरण, अठारह क्रियाओं का पालन गाथा १९५ से ३७५ तक ब. मध्यमलिंग व्रती सम्यक्दृष्टि का आचरण, ग्यारह प्रतिमा, पाँच अणुव्रत गाथा ३७८ से ४४४ तक स. उत्तमलिंग महाव्रती रत्नत्रय के साधक साधु का आचरण गाथा ४४५ से ४६० तक ५. ग्रन्थ रचना का उद्देश्य गाथा ४६१ से ४६२ तक २ बरेली, दिनांक-६.१.२००१ ज्ञानानन्द

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