Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 20
________________ Our श्री बाचकाचार जी अनुपम उपलब्धि भाव पूर्ण सिद्धांत साधना सम्पन्न, वस्तु स्वरूप का यथार्थ परिज्ञान कराने वाली का शुद्धस्वरूप है, ऐसा निज शुद्धात्म तत्व ही सच्चा देव है, जो इष्ट और प्रयोजनीय अपने आपमें अद्वितीय टीका है। श्री गुरुदेव जिन तारण स्वामी ने यह ग्रंथ मोक्षमार्ग है। टीकाकार ने उन षट्कर्मों की क्रियाओं को शुद्धात्मा की साधना में हेतु और बनाने के लिये, कर्मों को क्षय करने और एक मात्र मुक्ति को प्राप्त करने के लक्ष्य से , परम्परा से मोक्ष का कारण बने, यह अनुपम बात लिखकर टीका ग्रंथ को सजीवता लिखा है। जैसा कि ४६२ वीं गाथा में उन्होंने स्वयं कहा है ॐ प्रदान कर दी है। आगे स्पष्ट किया है कि जिन सिद्धांत जैन दर्शन में कोई परमात्मा "एकोदेस उवदेसं च, जिन तारण मुक्ति पथं श्रुतं" २. किसी का कुछ नहीं करता, वस्तु का स्वतंत्र परिणमन, पुरूषार्थ से मुक्ति की प्राप्ति, ग्रंथ के भाव के अनुरूप यह कृति अध्यात्म जागरण टीका एक ऐसी अनुपम कर्तृत्व का अभाव, ज्ञातृत्व शक्ति का जागरण जैन आगम का मूल आधार है। कृति है, जिसमें टीकाकार ने अव्रती श्रावक की अवस्था से मोक्ष तक का मार्ग किस जैन दर्शन में अनेकों श्रावकाचार प्रचलित हैं उन सबके मध्य तारण तरण प्रकार बनता है, इसका साधना परक अनुभवगम्य मार्मिक अंशों का विषय बार ! श्रावकाचार ग्रंथ जाज्वल्यमान मणिरत्ल की तरह शोभा को प्राप्त है। निरूपण किया है। इसलिये यह टीका ग्रंथ अध्यात्म के रुचिवान भव्य जीवों के लिये आत्मा के पांच पद-अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु यह देव के परम हितकारी है। इस ग्रंथ में श्रावक के लिये षट्कर्मों का विशिष्ट मौलिक चिन्तन पांच गुण पांच परमेष्ठी हैं, जो अपने आत्म स्वरूप में शक्ति रूप से विद्यमान हैं, जो प्रस्तुत किया गया है, यह विवेचन अभी तक किसी भी श्रावकाचार में पढ़ने को नहीं पूज्यता की अपेक्षा से प्रसिद्ध हैं। इन पांच पदों की प्रगटता के लिये ग्रंथ में आत्म मिला। इस विषय के अंतर्गत आवश्यक षट्कर्मों को शुद्ध और अशुद्ध-दो प्रकार साधना की प्रमुखता से उपाध्याय, आचार्य, साधु, अरिहन्त और सिद्ध पदवी का से भेद करके समझाकर मुमुक्षुजनों के लिये आत्महित का पथ प्रशस्त कर दिया है। दुर्लभ विश्लेषण किया गया है जो जैनागम में अद्वितीय प्रसंग है। श्रावक के प्रथम आवश्यक कर्म देवपूजा के संबंध में तारण पंथी मोक्षमार्गी गुरुदेव तारण स्वामी इस सहस्राब्दी में हुए साधना ज्ञान और प्रभावना के क्षेत्र श्रावक द्वारा पचहत्तर गुणों पूर्वक की जाने वाली देवपूजा का अलौकिक स्वरूप ४३१ में वीतरागी व्यक्तित्व से सम्पन्न अनूठे संत थे। इस ग्रंथ में एक ओर सम्यक्दर्शन, गाथाओं में बताया गया है, जिससे यह स्पष्ट हो गया है कि श्री जिनेन्द्र भगवान की ज्ञान, चारित्र में दृढ़ता पूर्वक प्रवृत्ति करने की आत्मीय भावना पूर्ण प्रेरणा श्री गुरु कही हुई वे छह क्रियायें ही यथार्थ हैं जो शुद्धात्मा की ओर ले जावें, जिनागम परम महाराज के वात्सल्य भावको व्यक्त करती है, तो दूसरी ओर धर्माचरण में शिथिलता, पूज्य आचार्य ऋषियों के द्वारा निर्मापित है, इसका मूल स्रोत तीर्थंकर परमात्मा का अतिचारपूर्ण चर्या का उन्मूलन करने हेतु सैद्धांतिक निर्णय की दृढ़ता पूज्य गुरुदेव उपदेश है। के आध्यात्मिक अनुशासन का प्रतीक है, यह विशेषता विरले ही ज्ञानी सद्गुरुओं ____सच्चे गुरू ही सन्मार्ग दर्शक होते हैं इसलिये सच्चे गुरु और कुगुरु का स्वरूप । में होती है। बताते हुए कुगुरु से बचने की प्रेरणा देते हुए लिखा है कि जो जिनेन्द्र परमात्मा के इस टीका ग्रंथ का सभी आत्मार्थी जिज्ञासु भव्य जीव गहराई से अध्ययन,मनन वचनों का लोप करके अर्थ का अनर्थ कर उपदेश करते हैं, वीतराग विज्ञानमयी धर्म* कर अंतर में विद्यमान अपने आत्मदेव का दर्शन कर परम्परा से मोक्ष को प्राप्त होवें, को न तो वे स्वयं पालते हैं, न दूसरों को उस मार्ग पर ले जाते हैं, वे कुगुरु पाषाण इस पावन भावना सहित पूज्य गुरुदेव एवं पूज्य श्री के चरणों में नमन कर विराम ० नौका के समान हैं, जो स्वयं डूबते हैं और बैठने वालों को भी डुबाते हैं। लेता हूँ। शुद्ध षट्कर्म में जो देवपूजा का स्वरूप बतलाया है वह कितना विशेष है और पं. राजेन्द्रकुमार जैन लोग पूजा के नाम पर आज जिस मार्ग में बेतहासे भागे जा रहे हैं वह समझने योग्य दिनांक-८.२.२००१ संयोजक है, जो देवों के अधिपति सौ इन्द्रों से भी पूज्य हैं वह देव हैं। व्यवहार से अरिहन्त अखिल भारतीय तारण तरण जैन सर्वज्ञ परमात्मा जो वीतरागी हितोपदेशी हैं वे सच्चे देव हैं और निश्चय से आत्मा विद्वत् परिषद्, अमरपाटन (म.प्र.)

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