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COOक श्री श्रावकाचार जी
ध्यात्म का शंखनाद DOO अध्यात्म का शंखनाद
कल्याण होने वाला नहीं है। अपने चैतन्य लक्षण स्वभाव की पहिचान प्रथम युग चेतना के प्रणेता, जन - जन में अध्यात्म और स्वतंत्रता
करना ही धर्म है। आत्मधर्म ही सत्य धर्म है। यही धर्म , समस्त कर्म बन्धनों J का शंखनाद कर भारतीय जनमानस के लिये आत्मकल्याण का सर्वश्रेष्ठ 5
से मुक्त कराने वाला है क्योंकि शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से चैतन्य लक्षण रूप पथ प्रशस्त करने वाले शुद्धात्मवादी वीतरागी संत आचार्य प्रवर श्रीमद
- आत्मधर्म समस्त कर्मों से रहित है इसलिये शुद्ध स्वभाव ,धर्म के आश्रय से जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज सोलहवीं सदी में हए महान
ही आत्मकल्याण मुक्ति होती है। यह जिनवाणी का मर्म,सत्य वस्तुस्वरूप आध्यात्मिक क्रांतिकारी संत थे। विक्रम संवत् १५०५ की मिति मार्गशीर्ष ८
2 तीर्थंकर भगवंतों की दिव्य देशना का सार है। जब इतना सूक्ष्म और यथार्थ
निर्णय अनाद्यनंत सिद्धांत मुक्ति का आधार हमें भगवान ने बतलाया है; शुक्ल सप्तमी को पिताश्री गढ़ाशाह जी, माताश्री वीरश्री देवी के घर जन्म। लेकर उन्होंने भारतीय वसुन्धरा को पवित्र किया। ११ वर्ष की अवस्था
S फिर जैन दर्शन में किसी की पराधीनता, परतंत्रता, परावलंबपने का स्थान में आत्मबोध सम्यकदर्शन सहित अपने आत्मकल्याण का पथ प्रारंभ
ही कहाँ है ? अपने आत्मस्वरूप के श्रद्धान , ज्ञान और आचरण रूप रत्तत्रय किया, पश्चात् २१ वर्ष की उम्र में ब्रह्मचर्य व्रत,३० वर्ष की उम में ब्रह्मचर्य
४ की एकता ही शाश्वत मोक्षमार्ग है। ऐसी सत्य वस्तुस्वरूप की देशना सुनकर प्रतिमा एवं ६० वर्ष की आयु में निर्धथ दिगम्बर जिन दीक्षा धारण कर 5
लाखों भव्य जीव जाति-पांति के बन्धनों से परे होकर अपने कल्याण के
४ मार्ग में अबसर होने लगे। इसको सहन नहीं कर पाने के कारण भट्टारकीय जिनशासन की आचार्य परंपरा को सुशोभित किया। उनका जीवन ग्रंथों की गाथा मात्र नहीं है बल्कि ज्ञान और संयम है
, प्रपंच ने षडयंत्र का रूप धारण किया और श्रीजित तारण स्वामी को जहर की प्रयोगशाला एवं चारित्रमय प्रकाश स्तंभ है। उनके द्वारा विरचित
दिया गया, बेतवा नदी में डुबाया गया जहां तीन बार अलग-अलग स्थानों चौदह थ युगों-युगों तक आत्मार्थी जिज्ञासु साधकों के लिये आत्म
पर डुबाने से तीन टापू बन गये , अंत में इस आध्यात्मिक क्रांति ने तारण साधना का पथ प्रशस्त करते रहेंगे।
पंथ का रूप धारण कर लिया। सोलहवीं शताब्दी का समय, धर्म और देवपूजा के नाम पर बाह्य
5 तारण पंथ अर्थात् संसार से तरने का मार्ग और वह रत्नत्रय आडम्बर, क्रियाकांड और प्रपंच के अंधकार से पूर्ण था, भट्टारक रामपूर्ण
सम्यकदर्शन , ज्ञान , चारित्र की एकता रूप। यह मोक्षमार्ग ही तारणपंथ क्रियाओं को धर्म कहते थे, जड़पूजा को देवपूजा सिद्ध कर रहे थे, सत्य
है। तारणपंथ कोई चहारदीवारी, मत या सम्प्रदाय नहीं है। संसार सागर धर्म का लोप करके वीतराग धर्म को हास की ओर ले जा रहे थे, ऐसे समय
र से तरने का मार्ग ही तारणपंथ है। ऐसा महिमामय आत्मकल्याण का में श्रीजिन तारण स्वामी ने सूर्य की तरह उदित होकर आध्यात्मिक क्रांति
मार्ग प्रशस्त कर श्रीगुरूदेव ने हम सभी जीवों पर अनन्त-अनन्त उपकार कर जनमानस को आत्मकल्याण का यथार्थ मार्ग बताया कि वीतरानी।
किया है। भारत कृतज्ञ है कि उसकी गोदी में ऐसा महानतम नक्षत्र करुणा तीर्थकर भगवंतों की शुद्धाम्नाय में वीतरामता और स्वाश्रय की प्रमुखता
और ज्ञान का संदेश लेकर आया तथा अपनी महानता से भारत को महान 2 है। जिनेन्द्र के मत में द्रव्य की स्वतंत्रता,पुरुषार्थ से मुक्ति की प्राप्ति की।
बना गया। जैन जनत भी धन्य-धन्य है कि जन-जन में सम भाव, ९ देशना है। एक द्रव्य , दूसरे द्रव्य का कुछ करता नहीं है , एक ही द्रव्य की।
स्नेह ,करुणा , समता और संयम का कीर्तिमान उपस्थित करने वाले एक पर्याय,दूसरी पर्याय की कर्ता नहीं है,पराधीनता और पराश्रितपने से
संत आचार्य श्रीजिन तारण स्वामी अपने आपमें अनूठे महापुरुष हुए। ... उनका चारित्र इतना भव्य था, उनकी वाणी अध्यात्म रस से ओत्योत