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श्री आवकाचार जी
श्री श्रावकाचार जी
जयमाल
देवों के जो देव परम जिन, परमातम कहलाते हैं । नमन सदा हम करते उनको, जो सत्मार्ग बताते हैं । सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण ही मुक्ति का आधार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥
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भेदज्ञान से स्व पर जाना, वह अव्रत सम दृष्टि है । पाप विषय कषाय में रत है, अभी जगत में गृहस्थी है ॥ अन्याय अनीति अभक्ष्य का त्यागी, वह नर जग सरदार है। सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥
जो पच्चीस मलों का त्यागी, शुद्ध सम्यक्त्वी होता है । अठदश क्रिया का पालन करता, विषय-कर्ममल धोता है ॥ सप्त भयों से मुक्त हो गया, निःशंकित सदा उदार है। सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥
श्रद्धा विवेक क्रिया का पालक, वह श्रावक कहलाता है । द्वादशांग का सार जानता, धर्म-कर्म बतलाता है । उपाध्याय पदवी का धारी, रहा न मायाचार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥
धर्मध्यान व्रत संयम करता, मक्ति का अभिलाषी है। दृष्टि में शुद्धातम दिखता, अभी जगत का वासी है । परमारथ में रुचि लगी है, खलता अब घरद्वार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥
षट् आवश्यक शुद्ध पालता, मुक्ति के जो कारण हैं । व्यर्थ आडम्बर छूट गया सब उसके सद्गुरु तारण हैं ॥
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जयमाल
सहजानंद में रत रहता है, शुद्ध आचार-विचार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥
ज्ञानानंद स्वभाव का रुचिया, अब व्रत प्रतिमा धरता है । पंच अणुव्रत ग्यारह प्रतिमा, निजहित पालन करता है ॥ ख्याति लाभ पूजादि चाह का, जहाँ न अंश विकार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥
शक्ति अनुसार मार्ग पर चलता, निस्पृह जगत उदासी है। अपने में आनन्दित रहता, वह शिवपुर का वासी है ॥ ब्रह्मचर्यरत रहता हरदम, सम्यक् ही व्यवहार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥
निश्चय व व्यवहार शाश्वत, दोनों का ही ज्ञाता है । त्रेपन क्रियाओं का पालक, आचार्य पदवी पाता है । निश्चय धर्म शुद्ध आतम ही, जिसका एक आधार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥
१०. धर्म ध्यान में रत रहता है, अनुमति उद्दिष्ट का त्यागी है ।
निश्चय नय की साधना करता, शुद्धातम अनुरागी है ॥ साधू पद धारण करने को, अन्तर में तैयार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥
दोहा
सम्यदृष्टि ज्ञानी का, सम्यक् हो व्यवहार । कथनी करनी एक सी, जिनवाणी अनुसार ॥
तारण स्वामी रचित यह, ग्रन्थ श्रावकाचार । सही सही पालन करो, हो जाओ भव पार ॥