Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 15
________________ विषयानुक्रम गाथा पा २२० २२२ २३१ १८५ १९५ २०० २०० २०० २०१ ३२३-३३९ ३४०-३४५ ३४६ ३४७ ३४८,३४९ ३५०-३५३ ३५४,३५५ ३५६, ३५७ ३५८ ३५९-३६४ श्री आचकाचार जी विषय शास्त्र स्वाध्याय, संयम, तप, दान) १०४. देव और देव पूजा का स्वरूप कथन १०५. पंच परमेष्ठी पद की आराधना १०६. श्रुत पूजा का स्वरूप १०७. चार अनुयोग १०८. प्रथमानुयोग का स्वरूप १०९. करणानुयोग का स्वरूप ११०. चरणानुयोग का स्वरूप १११. द्रव्यानुयोग का स्वरूप ११२. चारों अनुयोगों को जानने का फल ११३. श्रेष्ठ सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की आराधना ११४. पचहत्तर गुणों से देव पूजा की सम्पन्नता ११५. गुरू उपासना का स्वरूप ११६. स्वाध्याय का स्वरूप ११७. संयम का स्वरूप ११८. तप का स्वरूप ११९. दान का स्वरूप १२०. शुद्ध षट्कर्म पालन का परिणाम मध्यम लिंग देशव्रती सम्यक्दृष्टि श्रावक. १२१. ग्यारह प्रतिमा और पांच अणुव्रत का पालन करने से व्रती श्रावक होता है १२२. ग्यारह प्रतिमाओं के नाम १२३. पांच अणुव्रतों के नाम १२४. दर्शन प्रतिमा का स्वरूप (पच्चीस दोष रहित) १२५. तीन मूढता रहित १२६. छह अनायतन रहित २ १२७. आठ मद और आठ शंकादि दोष रहित १२८. तीन कुज्ञान रहित 7१२९. शुद्ध सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र से संयुक्त होने की महिमा १३०. सम्यक्दर्शन से रहित व्रत तप संयम तथा अनेक पाठ पढ़ना, अनेक क्रिया करना, दान देना व्यर्थ है २०७ २०८ २०८ २०९ SOON गाथा ४००-४०४ ४०५ ४०६,४०७ ४०८-४१४ ४१५-४१७ ४१८,४१९ ४२०-४२५ ४२६-४३१ ४३२ ४३३ ४३४,४३५ ४३६ ४३७ ४३८ ४३९ ४४० ४४१,४४२ ४४३ ४४४ ३६५, ३६६ ३६७, ३६८ ३६९, ३७० ३७१,३७२ ३७३ ३७४ ३७५-३७७ reatreoniorrectarekriorrectaneonorrector विषय १३१. शुद्ध दृष्टि का जागरण ही सार्थक कार्यकारी है १३२. व्रत प्रतिमा का स्वरूप १३३. सामायिक प्रतिमा का स्वरूप १३४. प्रोषधोपवास प्रतिमा का स्वरूप १३५. सचित्त प्रतिमा का स्वरूप १३६. अनुराग भक्ति प्रतिमा का स्वरूप १३७. ब्रह्मचर्य प्रतिमा का स्वरूप ११३८. आरम्भ त्याग प्रतिमा का स्वरूप १३९. परिग्रह त्याग प्रतिमा का स्वरूप १४०. अनुमति त्याग प्रतिमा का स्वरूप १४१. उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा का स्वरूप १४२. ग्यारह प्रतिमा जिन नाम कही १४३. पंच अणुव्रत के नाम, उनकी पूर्णता १४४. अहिंसाणुव्रत का स्वरूप २१४५. सत्याणुव्रत का स्वरूप १४६. अचौर्याणुव्रत का स्वरूप १४७. ब्रह्मचर्याणुव्रत का स्वरूप * १४८. परिग्रह प्रमाण अणुव्रत का स्वरूप १४९ अणुव्रतों का पालन करने वाला उत्कृष्ट श्रावक होता है उत्तम लिंग नियन्ध वीतरागी साधु. १५०. रत्नत्रय से संयुक्त वीतरागी साधु १५१. महाव्रती साधु पूर्ण त्रेपन क्रियाओं का पालन करने वाला होता है १५२. ध्यान योग की साधना १५३. साधु संयमी होता है १५४. साधु महाव्रती होता है 5 १५५. साधु धर्म ध्यान से संयुक्त जिन वचनों का प्रकाश करने वाला होता है १५६. साधु तीन मिथ्यात्व, तीन कुज्ञान और राग-द्वेषआदि से मुक्त होता है १५७. साधु स्वयं तरने वाला और भव्य जीवों को तारने वाला होता है २१२ ३७८ २४५ २४६ ४४५ ४४६ २१३ २१४ २१४ २४८ ३७९,३८० ३८१ ३८२ ३८३-३८५ ३८६-३८८ ३८९ ३९० ३९१-३९७ ४४७ ४४८ ४४९ ४५० २१६ २४८ २१७ २४८ ४५१ raPAG २१९ ३९८,३९९ २५० ४५२

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